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जग से बेशक चली जाए

जग से बेशक चली जाती है पर जेहन से कभी नहीं जाती मां जब भी लगती थी तपिश ज़माने की ठंडी सी फुहार बन जाती थी मां उलझ से जाते थे जब जिंदगी के ताने बाने बड़े प्रेम से सुलझाती थी मां लगती थी गर चोट मुझे मरहम झट से बन जाती थी मां उथल पुथल होती थी जब भी कोई मन से सहजता पल  भर में ला देती थी मां जिंदगी की किताब के नहीं आते थे समझ जब हर्फ कई,मिनटों में सब समझा  देती थी मां हूक  सी उठती थी सब सीने में वात्सल्य निर्झर बहा देती थी मां चाहिए होता था जब भी कुछ मुझे यथासंभव दिला देती थी मां आती थी जब कोई भी परेशानी झट समाधान बन जाती थी मां उपलब्ध सीमित संसाधनों में मां कब,कैसे,कितना कर लेती थी मुझे आज तलक भी समझ नहीं आता एक बात आती है समझ मां बेटी का जब में सबसे प्यारा नाता मां से सुखद कोई अहसास नहीं मां से अनमोल कोई साथ नहीं कौन सा दिन मां के बिन है फिर एक ही दिन मदर्स डे कैसे हो सकता है मेरी समझ को ये समझ नहीं आता सबसे धनवान वही है जग में जो मां का साथ प्रेम है जग में पाता

मौन की भी शब्दावली थी तेरी

अद्भुत होते हैं ये वाद्य यंत्र

उठो पार्थ गांडीव उठाओ

उठो पार्थ! गांडीव उठाओ फिर दुश्मन ने आतंक फैलाया है जब जब होती है हानि धर्म की माधव ले अवतार धरा पर आया है मात्र 26 लोग ही नहीं मरे इस आतंकी हमले में, मर गए सपने,आशा,उम्मीदें,विश्वास मर गई मानवता,हुई हावी दानवता अपनों के आगे अपनों की ही बिछा दी दरिंदों ने लाश नासूर दे गए ऐसे दरिंदे,ले प्रतिशोध मरहम लगाने का समय अब आया है उठो पार्थ गांडीव उठाओ घड़ा पाप का कंठ तक भर आया है लुटे सुहाग,उजड़ी कोख,तन मन व्यथित हो आया है मजहब कहां सिखाता है आपस में बैर रखना, मजहब के नाम पर जैसे कोई हर सकता है किसी के श्वास इस गुनाह का तो ही प्राश्चित कम है ऐसा चित को होता आभास मर गया मन का उल्लास,उमंग,जिजीविषा,ललक चित,चितवन,चेतन,अचेतन,चित्र,चरित्र सब लगता उदास सोच से सोचा भी नहीं जाता दुख परिवार जनों का कैसे उन्हें जीवन अब आयेगा रास?? मर गया भरोसा इंसान का इंसान पर रूह रेजा रेजा,टूटी टूटी सी आस उठो पार्थ विश्वास जगाओ करो अंत बुराई का,चित चिंता हरने का पल आया है  अच्छाई का दीप जलाओ देखो घना अंधकार हो आया है विनम्र हैं हम कमजोर नहीं समय सबक सिखाने का आया है ऐसा भी कोई कैसे कर सकता है विश्वाश को भी नहीं होता...

भोग्या नहीं भाग्य है नारी(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*चित निर्मल चितवन भी चारु*  चित्र,चरित्र में कर्मठता के होते हैं दीदार *भोग्या नहीं भाग्य है नारी* है नारी से ही यह सुंदर संसार मधुर बोली,उत्तम व्यवहार,अथाह  ज्ञान का अकूट भंडार संतुलन,संयम,सहजता की त्रिवेणी बहती चित में सदाबहार धरा सा धीरज,उड़ान गगन सी रहा प्रेम ही उसके हर नाते का आधार  मानो चाहे या ना मानों *नारी धरा पर ईश्वर का सर्वोतम उपहार* अपनी हदों की सरहद से वाकिफ होती है बखूबी, दायरे में रह कर निभाती है किरदार संतुलन,संयम,सहजता की त्रिवेणी बहती चित में जिसके सदाबहार अपनी जान पर खेल हमें इस जग में लाने वाली नारी को,  मिले स्नेह सम्मान का पूरा अधिकार भोग्या नहीं भाग्य है नारी है नारी से सुंदर संसार नारी के होने से ही बोलने लगते हैं घर की चौखट,दहलीज दर ओ दीवार पत्ते पत्ते बूटे बूटे में चेतना करने लगती है श्रृंगार काम से जा कर काम पर जा कर काम पर ही लौटने वाली नारी को जिम्मेदारी संग मिलें सारे अधिकार चित निर्मल,चितवन भी चारु चेतन अचेतन चित्र चरित्र में बहती सदा ही स्नेह धार वात्सल्य का कल कल बहता निर्झर दिल में,नहीं शब्द कोई ऐसे जो प्रकट कर पाएं आभार...