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Showing posts from January, 2020

My miracle Mom| poem by sneh premchand माँ होती है हक और अधिकार

माँ केवल माँ ही नहीं होती, माँ होती है हक और अधिकार। करुणा,वात्सल्य,सामंजस्य की त्रिवेणी, सपनों को सहजता से देती आकार।। पर्व है माँ,उत्सव है माँ, उल्लास है माँ, सच मे जीवन में सबसे खास है माँ, सहजता का पर्याय है माँ, जीवन में सबसे अच्छी राय है माँ, ग्रीष्म में शीतल फुहार है माँ, बसन्त में सुंदर बहार है माँ, जाड़े में गुनगुनी धूप है माँ, जग में सबसे सुंदर रूप है माँ, प्रेम है माँ, पुंज प्रकाश है माँ, बच्चे का अदभुत विकास है माँ, अनुभूति है मां, अहसास है माँ, चैन है माँ,सुकून है माँ, लक्ष्य है माँ,जुनून है माँ, मरहम है माँ,मिठास है माँ, विश्वास है माँ,आस है माँ, चेतना है माँ,स्पंदन है माँ, चाहत है माँ,वंदन है माँ, होली है माँ, दीवाली है माँ, जग में सबसे निराली है माँ, सुर,सरगम,संगीत है माँ, शिक्षा,संस्कार,रीत है माँ, समर्पण है माँ,त्याग है माँ, प्रीत है माँ, अनुराग है माँ, पतंग है जीवन तो डोर है माँ, सबसे उजली भोर है माँ, सामंजस्य,समझौता,सहनशीलता, होते माँ के सच्चे श्रृंगार। भांति भांति के मोतियों से बनाती, मां अदभुत, प्यारा सा प्रेमहार।। अपनी नज़रों के आईने से, हमारा अक्स उसे बखूबी नज़र आत

Extra Special Mom| poem by sneh premchand माँ से सुंदर है ये जहान

माँ से ही सुंदर है ये जहान, कुदरत का माँ अनमोल वरदान। प्रेम आधार है माँ की ममता का, हो जाए हमसब को भान।। हर शब्द पड़ जाता है छोटा, जब माँ का करने लगो बखान। न कोई था,न कोई है,न कोई होगा, माँ से बढ़ कर कभी महान।। माँ बिन सूना है ये संसार, माँ ही जोड़ती है रिश्तों के तार। हमारे बिखरे बिखरे से जीवन को, असंख्य बार माँ ही तो देती है सँवार।। अगाध प्रेम की गाथा है माँ, वात्सल्य की मूरत है माँ, पूरे जग में कहीं ढूंढ लो,  सबसे मोहिनी सूरत है माँ।। ओस की बूंद हैं बच्चे तो, माँ सागर की है गहराई। उसकी ममता के सागर में, हमने ही न डुबकी लगाई।। इसे कहें विडंबना या दुर्भाग्य, जीते जी माँ के ये बात समझ न आई। क्यों देते हैं जीवन की साँझ में उसे तन्हाई।। सुख में है माँ,दुख में है माँ, हर लम्हे,हर शै में है माँ, बड़े बड़े सपने दिखाती माँ, पंखों को परवाज़ दिलाती मां, खुद पिस पिस कर औलाद का जीवन, सरल,सहज सा बनाती माँ, कर्मयोगिनी,ममता की देवी, सच मे खुदा का है वरदान। एक बात आती है समझ में, माँ से ही सुंदर है ये जहान।। हर शब्द पड़ जाता है छोटा, जब माँ का करने लगो बखान।। रिश्तों के ताने बानो को माँ, सहजता से लेती है ब

चाहत

हर पत्ता अलग होना चाहता है शाख से, स्वार्थ का पलड़ा हो गया है भारी, मिलता था चैन जिस माँ की गोद में, वही बूढ़ी माँ अब लगती है उसे खारी।। समय का दरिया यूँ ही बहता रहता है, समय पंख लगा उड़ जाता है। बीता वक़्त नहीं आता लौट कर, पाछे इंसा पछताता है।। जिसके पल पल हर पल में तुम थे, आज कुछ पल भी उसे देना, क्यों लगता है इतना भारी??? कभी उऋण नहीं हो सकते  मातृ पिता ऋण से, हो बेहतर रहें उनके आभारी।। हर पत्ता अलग होना चाहता है शाख से, स्वार्थ का पलड़ा हो गया है भारी। बड़े जतन से बड़े प्रयत्न से, बागबां अपने चमन को खिलाता है। हर पौध, कली,पत्ते,शाख को, वो महान वृक्ष बनाता है।। वृक्ष बनाने की इस प्रक्रिया में वो पूरा जीवन बिताता है। पर आती है जब साँझ इस बागबां की, वृक्ष बागबां से ही नज़रें चुराता है।। ये कैसी अजब गजब सी रीत बनी है, शोला बन गई है चिंगारी। हर पत्ता अलग होना चाहता है शाख से स्वार्थ का पलड़ा हो गया है भारी।। वृक्ष बड़ा होता है हौले हौले, वो पुष्प और फल समय संग लाता है। बागबां खुश होता है देख वृद्धि निज वृक्ष की, मन उसका तृप्त हो जाता है।। अपनी बगिया को देख महकता, वो भीतर से मुस्काता है। बृक्ष अपने

what"Mother"means| poem by sneh premchand

माँ, किन किन यत्नों से तूने हमें पाला पोसा होगा, ये माँ बन कर माँ, मैंने है जाना।। किन किन रिश्तों के ताने बानो को तूने सुलझाया होगा, ये रिश्तों की भूल भुलैया में उलझ पुलझ कर, माँ मैंने है जाना।। किन किन तूफानों में डोलती नैया को माँ तूने साहिल तक पहुंचाया होगा, ये ज़िन्दगी की डगमगाती नाव में होकर सवार माँ।मैंने है जाना।। किन किन तपती जीवनराहों मेंअपने सफर को, तूने थके कदमों से पूरा लगाया होगा, ये उन तपती राहों पर चल कर माँ मैंने है जाना।। किन किन जख्मों पर तूने हँसी का लगा कर झूठा मरहम,बड़ी आसानी से हमसे छुपाया होगा, ये उन जख्मों को खा कर माँ मैंने है जाना।। किन किन लू के थपेडों को सहकर,  तूने ठंडक का इज़हार कराया होगा, ये खा कर लू के गहरे थपेड़े, माँ मैंने है जाना।। किन किन परेशानियों को भुला कर सहज होने के किरदार को माँ तूने कितनी सहजता से निभाया होगा, ये उन परेशानियों से गुजर कर,माँ मैंने है जाना।। किन किन अहसासों को माँ तूने न दी होगी अभिव्यक्ति, ,कितनों को ही तूने हिवड़े में दबाया होगा, उमड़े घुमड़े होंगे उन अनेक अहसासों के बादल, पर अपने लबों को माँ तूने न हिलाया होगा, ये उन अहसासों की

A poem for my mom

There can be no other, like a mother, Whether sister or brother. Change is inevitable, Everything changes with  passage of time, But mother is same in every weather. There can be no other like a mother. In journey of our life, We meet so many people, Having different tastes,values& thinking. Amongst all,mother is the best soother. There can be no other like a mother. She is really the best teacher, Not only the best teacher, She is also the best preacher. There can be no other like a mother. In the heat of life, mother is best cooler. In the harshness of life, She is actually the soft butter. There can be no other,like a mother. When we miss the right path in life Then she is our true controller. In fact she is our real dollar. Even in our defeat, She is the one,who will not fleet. She will treat us in each &every best Possible manner. Really she is the one, Who is our true planner. There can be no other,like a mother. What we do,she is our best monitor &Scanner. What we wa

नेत्रदान

मैं भी देख सकता हूँ रंग जीवन के, गर आप कर जाओ जाते जाते नेत्रदान। मैं भी जानूं प्रकृति की हरियाली, कैसी दिखती होगी ये दुनिया महान।। मैं भी देखूं आदित्य की किरणों से लिपट कर, कैसे किसी झँरोखे से धूलिकण नृत्य सा, किया करते हैं। मैं भी देख सकूं रंगोली,इंद्रधनुष जीवन के, कैसे मनोभाव चेहरे के भाव बदल देते हैं। मैं भी देख सकूं माँ की ममता के भावों को, पिता के सपनो की चाहों को, भाई बहनों संग जीवन की राहों को, मैं भी देख सकूँ बादलों में भिन्न भिन्न आकृतियों को,उगते,ढलते सूरज की लालिमा को, तारों की टिमटिमाहट को, इंदु की उज्ज्वल ज्योत्स्ना को, विहंगम ब्रह्मांड में असंख्य वस्तुओं,धातुओं, जीवों को, ये सब सम्भव है,जब आप कर दोगे नेत्रदान। मर कर भी अमर हो जाओगे, जाने के बाद भी आपकी आँखें देखेंगी ये पूरा जहान।।                स्नेह प्रेमचन्द

मुलाकात

राधा,मीरा और रुक्मणि एक दिन स्वर्ग में मिल जाती हैं, तीनों कान्हा की प्रेम दीवानी,कुछ ऐसे बतियाती हैं।। कहा रुक्मणि ने दोनों से,"कैसी हो मेरी प्यारी बहनों,कैसी बीत रही है ज़िंदगानी?? हम तीनों के प्रीतम तो कान्हा ही हैं, पर सुनाओ आज मुझे अपनी अपनी प्रेम कहानी। सबसे पहले बोली मीरा,"मैं तो सांवरे के रंग रांची, भाया न मुझे उन बिन कोई दूजा, बचपन से ही उन्हें माना पति मैंने, निस दिन मन से करी उनकी पूजा।। उन्हें छोड़ किसी और की कल्पना नहीं हुई मुझे कभी स्वीकार। ज़हर का प्याला पी गई मैं तो, किए सपनों में भी कान्हा दीदार।। नहीं राणा को मैंने माना कभी भी अपना  सच्चा भरतार। करती थी,करती हूं,करती रहूंगी सदा शाम से सच्चा प्यार।। मीरा के समर्पण को सुन रुक्मणि को ईर्ष्या हो आई, उन्मुख हो राधा से पूछा उसने,"कहो तुमने कैसे ज़िन्दगी बिताई???? राधा बोली,क्या हैं कान्हा मेरे लिए,लो आज तुम्हे बताती हूँ, भावों और शब्दों के आईने से सच्ची तस्वीर दिखाती हूँ।। इबादत हैं कान्हा,तो मस्ज़िद हूँ मैं, सरोवर हैं कान्हा,तो शीतल जल हूँ मैं, परिंदा है कान्हा तो पंख हूँ मैं, परीक्षा है कान्हा तो अंक हूँ मैं,  म

परिंदे

पर निकलते ही परिंदे आसमां के हो गए, भूल गए पालनहारों को, एक नई दुनिया में खो गए।। माना ज़िन्दगी के रंग अनोखे, ये अपनी तरफ लुभाते हैं। पर अपनी प्राथमिकताओं को क्यों, हम इतनी आसानी से भुलाते हैं??? ज़िंदगी की भूलभुलैया में, भूल अपनों को ही, हम सब ऐसे कैसे सो गए? कुछ ज़िमम्मेदारियाँ हैं हमारी भी उनके लिए, ये क्यों और कैसे हम ऐसे हो गए??? पर निकलते ही परिंदे आसमां के हो गए। धरा पर जन्म दिया था जिस माँ ने हमको, संवेदनहीन से उसके लिए हम हो गए।। खो गए अपनी ही छोटी सी परिधि में, पत्ते भूल जड़ों को बस बेलों के हो गए। पर निकलते ही परिंदे----–--------------।। भूल गए उस महान वृक्ष को हम, जिसका कभी हम छोटा सा हिस्सा थे। हो गई सीमित और छोटी सी दुनिया हमारी, माँ बाप तो अब भूला हुआ सा एक किस्सा थे।।उऋण नहीं हो सकते कभी मात पिता के ऋण से, ये इतने उदासीन से कैसे हम हो गए???? पर निकलते ही परिंदे-–-------------------।। ये वही बागबां तो हैं जो किल कारी से तुम्हारी कितना खुश हो जाते थे, देख तुम्हारी मोहिनी सूरत ,वे अपनी थकान मिटाते थे।। अब देख कर भी अनदेखा करते हो तुम उनको, कौन से हैं वे नयनाभिराम दृश्य,जो तुम्

कैसी होती हैं बहनें

बहुत ही अपनी,बहुत ही प्यारी होती हैं बहनें, प्रेमस्याही से अपनत्व ग्रन्थ लिखती हैं बहनें, दुश्मनी का दलदल सदा सुखाती हैं बहनें, भाई बहन के सबसे लंबे रिश्ते को ताउम्र निभाती हैं बहनें, द्वेष का दावानल सदा प्रेमजल से बुझाती हैं बहनें, कलह का कीचड़ हटा,सौहार्द का कमल खिलाती हैं बहनें, कटुता की कालिख मिटा,मधुरता का तिलक लगाती हैं बहनें, नफरत के कांटे हटा,सदभाव सुमन खिलाती हैं बहनें, ईर्ष्या,द्वेष की दुर्गंध हटा कर,सहिष्णुता की सुगंध फैलाती हैं बहनें, विकारों की आँधी को संयम से थामती हैं बहनें, अपनत्व के घी से प्रेम की अखंड ज्योत जलाती हैं बहनें, प्रेम मंडप में अपनत्व का अनुष्ठान हैं बहनें, स्नेह कावड़ में मीठे रिश्ते का मधुर जल हैं बहनें, विनम्रता की अँखियों में करुणा का काजल हैं बहनें, प्रेम बादल में सहजता की बारिश हैं बहनें, सरलता और सहजता की मधुर झंकार हैं बहनें, निष्ठा की कड़ाही में प्रेम का छौंक हैं बहनें, मुसीबत की घड़ी में परछाई हैं बहनें, प्रेम मटकी मे करुणा का माखन हैं बहनें, विश्वास के साग में आस का धनिया हैं बहनें, जीवन का मधुर से सुर, गीत और संगीत हैं बहनें, पर्व है,उल्लास है,समाज

बेचैनी और सुकून

एक दिन बेचैनी ने कहा सुकून से,"हो शांत से गहरे सागर तुम,थाह तुम्हारी आज तलक न किसी ने पाई" मैं नदिया के भंवर के जैसी उद्विग्न और चंचल, कोई शांत,सीधी,उजली सी राह न दी कभी दिखाई।। कहा सुकून ने बेचैनी से,"होता है जहाँ मोह,काम,क्रोध और भौतिक सुखों को पाने की तीव्र लालसाएँ। तुम बिन बुलाए दौड़ी चली जाती हो वहाँ पर, ठहराव की नहीं दिखाई देती तुम्हें राहें।। "आक्रोश"तुम्हारे पिता हैं बेचैनी," चितचिंता"है तुम्हारी माता। आशंका है बहन तुम्हारी,आवेग से है भाई का नाता।। नहीं ज़रूरी मैं रहूं महलों में,मुझे तो फुटपाथ भी आते हैं रास। पर तुम तो कहीं भी नही टिक पाती,पूरे ब्रह्मांड में तुम्हारा नहीं है वास।। बच्चे की मुस्कान में हूँ मैं, माँ की ममता में रहता हूँ, पिता की परवरिश में हूँ, बड़ी सहजता से कहता हूँ।। जिस दिन तुम्हे जीवन की सही सोच समझ में आएगी, विलय हो जाओगी उस दिन तुम मुझमें, बेचैनी सुकून बन जाएगी,बेचैनी सुकून बन जाएगी।।               स्नेह प्रेमचन्द

मेहनत और आलस्य

ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर एक दिन दोनों मिल जाते हैं। करते हैं कुछ बातें ऐसी,जिसे हर युग मे सार्थक सा हम पाते हैं।। देख दमकता चेहरा मेहनत का, किए प्रकट आलस्य ने निज यूँ उदगार। कभी नही थकती,कभी नहीं रुकती, कभी नहीं करती तुम हाहाकार।। दिन पर दिन हो जाती हो और भी सुंदर, कहो कैसे संभव है ये चमत्कार???? जग पूरा मानता है लोहा तुम्हारा, है अति मनभावन तेरा दीदार।। सुन आलस्य की बोली बातें, मेहनत मंद मंद मन से मुस्काई। सुनो प्रिय तुम्हे आज बताऊँ, मुझे तो युगों युगों से ये बात समझ में है आई।। "कर्म"हैं मेरे प्यारे"प्रीतम" निस दिन रंग उनका मुझ पर चढ़ जाता है। हो जाती हूँ मैं और भी सुंदर, हर कोई मुझे दमकता हुआ पाता है।। तुम्हारी तो सोच ही है दुश्मन तुम्हारी, सोच से कर्म और कर्म से ही तो, निश्चित होते हैं परिणाम। तुम हाथ पर हाथ धरे रह गए युगों से, क्यों थके नहीं लेलेकर विश्राम???? मुझे तो लगते हो हताश, रोगी, अवसादग्रस्त से तुम, जीने का मतलब नही होता आराम।। जिसे तुम कहते हो आनंद और मस्ती, मैं कहती हूँ है वो जीना हराम। हो जाओ विलय तुम मुझ में साथी, मानवता करेगी फिर तुमको भी सलाम।। कर्म

श्रद्धा और तर्क

ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर,एक दिन दोनों मिल जाते हैं, करते हैं कुछ बातें ऐसी,जिसे सुन हम दंग रह जाते हैं।। बेचैन तर्क कुछ बोला ऐसे, सुन श्रद्धा मंद मंद मुस्काई, तनिक भी मन नही डोला उसका,कहते हुए न ज़रा सकुचाई।। "आस्था"है माँ,"विश्वास"पिता हैं और "धीरज"लगता है भाई। है पूरा ही परिवार मेरा ऐसा,तभी मैं श्रद्धा बन पाई।। सुन श्रद्धा का सुंदर परिचय,तर्क ने प्रकट किए निज यूँ उदगार, "बिन प्रमाण कैसे मान लेती हो तुम सब कुछ,क्या है तुम्हारी सोच का दृढ़ आधार???? मानों तो पत्थर भी भगवान है, न मानों तो गंगा भी है सादा बहता पानी। तुम दिमाग में रहते हो लोगों के, मैं हूँ लोगों के दिलों की रानी।। चीजों को सिद्ध करने में ही, बिता देते हो पूरी ज़िंदगानी। फिर भी आता नहीं कुछ हाथ तुम्हारे, नहीं आती समझ तुम्हे हिवड़े की कहानी।। अतृप्त से भटकते रहते हो तुम, नहीं मंज़िल तुम्हे कोई मिल पाती। क्या सही है,क्या गलत है, इसी आपाधापी में ज़िन्दगी चली जाती।। मैं अनन्त सागर सी बहती रहती हूं, मेरी शरण में लोगों को मिलता है चैन। तुम किसी तड़ाग का ठहरा मटमैला पानी, तड़फते रहते हो दिन रैन

वो कब याद नही आती

वो कब याद नहीं आती,भोर हो या हो फिर शाम, माँ होती ही ऐसी है सबकी, माँ का साया चारों धाम।। सहजता दामन चुराने लगती है,उसके जग से जाने के बाद, कभी कभी तो सच मे आती है वो बहुत ही याद।। हर शै कितनी जीवंत,कितनी सुंदर,कितनी आकर्षक होती है माँ के संग, माँ से ही तो सुंदर होते हैं जीवन के सारे के सारे रंग।। माँ वो सिलबट्टा है जो खुद पिस कर बच्चों के जीवन की मीठी चटनी बनाती है, कैसे भी हालात हों जीवन के,वो समस्या का समाधान बताती हैं।।

गुजरे पल

बीत गया जो पल जीवन में, बन जाता है वो इतिहास। गए वक़्त का रोना न रोकर, अपना आज बनाएं खास।। जब जागोगे,तभी सवेरा, आएगा उजाला,हटेगा अंधेरा।। क्या संग लाए थे जीवन में, न कुछ तेरा,न कुछ मेरा।। ज्ञान के चक्षु खोल ले मानव, सम्भव तभी है पूर्ण विकास। बीत गया जो पल जीवन में, बन जाता है वो इतिहास।। भाग्यवादी न बन कर हम, कर्मों की शरण में आ जाएं। ईश्वर भी उन्हीं को देते हैं सहारा, कर्महीन कभी न मुक्ति पाएं।। करके अच्छे कर्म जीवन में, फल की न रखें कभी आस। बीत गया जो पल जीवन में, बन जाता है वो इतिहास।। पल पल हर पल जीना सीखें हम, हर पल हो मीठा अहसास। मीठी वाणी,मधुर भाव हों, तो बंधन भी आते हैं रास।। बीत गया जो पल जीवन में, बन जाता है वो इतिहास।। दूर गगन में टिम टिम तारे, मानो ये बतियाते हैं। स्वर्ग सी सुंदर मोहिनी धरा ये, फिर इंसा क्यों पाप बढ़ाते हैं??? मार कुल्हाड़ी निज पग पर, खुद को चोट पहुँचाते हैं। अहिंसा छोड़ चुन हिंसा को क्या सन्देसा दे जाते हैं।। विषय विकारों में फंस कर, जीवन बन जाता है फांस। बीत गया जो पल जीवन में, बन जाता है वो इतिहास।। गए वक़्त का रोना न रो कर, अपना आज बनाएं हम खास।। छू कर छाया

ना उसने कहा,न मैंने पूछा

न उसने कहा,न मैंने कुछ पूछा, रहा यूँ ही ये सिलसिला जारी। एक दिन ऐसा आया जलजला, माँ के जाने की आ गई बारी।। न उसने समझाया,न मैं खुद कुछ समझा, जान बूझ कर बना रहा अनजान। आज नहीं रहा जब माँ का साया, हुई उसके प्यार की सही पहचान।। न वो कुछ बोली, न मैंने कुछ कहा, भावों के आगे तब भाषा हारी। एक दिन ऐसा आया जलजला, मां के जाने की आ गई बारी।। न उसने कोई हक जताया, न मैंने दिया उसे कोई अधिकार। न चल कर कुछ मांगा उसने, समझा भाग्य,कर लिया स्वीकार।। न बढ़ कर कभी वो आगे आई, न मैंने कभी अपना हाथ बढ़ाया। देख कर भी उसे कर दिया अनदेखा, देखा वही,जो नज़रों को भाया।। आज देखता हूँ जब पीछे मुड़कर, ममता लुटा दी मुझ पर सारी। एक दिन ऐसा आया जलजला, माँ के जाने की आ गई बारी।। न उसने कभी जख्म दिखाए मुझको, न मैं भी कभी मरहम उसके लिए लाया। आज नही जब आहट कहीं भी माँ की, ज़र्रा ज़र्रा लगता हो मुरझाया।। न खोले कभी बंद से लब उसने, न मैंने कभी कुरेदे उसके अहसास। झिझक की चादर ओढ़ ली रिश्ते ने, चाह कर भी नहीं आए पास।। झिझक की चादर,मौन के तकिए, ऐसा बना रिश्ते का बिछौना। नहीं दी सुनाई वहाँ पर लोरी माँ की, न ही मांगा मैंने कोई खिलौना।। क्

आज भी आई,कल भी आई

आज भी आई, कल भी आई, कौन सी ऐसी बेला है, जब माँ तूँ न हो मुझे याद आई।। वे कहते हैं न जाने वालों को किया करो तुम याद, पर भूलना कौन सा है हाथ हमारे, उन चेहरों से ही तो जीवन, हुआ था आबाद।। माँ तूँ ही तो थी, ज़िन्दगी का परिचय अनुभूतियों से कराने वाली, हर समस्या का समाधान बताने वाली, जीवन यात्रा को सहज सुंदर बनाने वाली, पंखों को परवाज़ दिलाने वाली, जीत हो या हो हार, हर हाल में अपनाने वाली, हर जख्म पर मरहम लगाने वाली, क्या अहमियत है मेरी जीवन मे तेरे, जाने कितनी ही बार बताने वाली, एक ऐसी किताब जिसके हर हर्फ में ममता बड़ी मौज से रहती थी, एक ऐसा कांधा जहां दर्द को मिलता था चैन, एक ऐसा साथ चाहे दिन हो या हो रैन, हर उपलब्धि साथ जिसके साँझा करने का हो मन, हर नुकसान जिसकी न हो सके भरपाई, वो भी बता तुझे मिलता था आराम।। कैसे भूलूँ माँ तुझको,मुझे तो ये बात समझ ही नही आई। आज भी आई,कल भी आई कौन सी ऐसी बेला है माँ जब तूँ न हो याद आई।।

गलियारे

लेखन के गलियारों में, भावों के बाजारों में, अक्सर घूमने लगता है मन, तो कुछ शब्दों के मोती चुनकर, रचना की बुन देता है माला। साहित्य के आदित्य से दमकने लगता है समा, बिन पिए ही लगता जैसे पी ली हो हाला।। लेखन में है एक ऐसा सरूर, हो न पर मन में कोई ग़रूर, कुछ नया रचने का जज़्बा हो हर ह्रदय में ज़रूर।। ह्रदय नही वो पत्थर है भाव नही जहां लेते जन्म, वस्तु नही हम व्यक्ति हैं सबके हैं अपने अपने कर्म।। साहित्य समाज का है दर्पण बचपन से सुनते आए हैं अच्छे और समृद्ध साहित्य ने ज्ञानदीप असंख्य जलाए हैं।। धन्य है वह लेखनी जिसने जाने कितने ही ह्रदय परिवर्तन  करवाए हैं, बधाई पात्र हैं वे लेखक अशांत चित जिन्होंने  शांत करवाए हैं।।         स्नेहप्रेमचन्द

अहसास

साहिल से टकरा कर मौज़ें, अपने अस्तित्व का कराती हैं अहसास। केवल तन ही मेरा चाहा तुमने, हो सकी न मन से कभी तेरे पास।। नहीं समझता साहिल मौजों की धड़कन, लौट जाती हैं वे सागर के पास। चाहा था मौजों ने साहिल को ही, सागर को नहीं थी मौजों के आने की आस।। जाने क्या क्या भुला कर मौजों ने, किया साहिल को तहे दिल से प्यार। ज़िद्दी ठूंठ सा अड़ा रहा वो, समझा,जीता, पर गया था हार।। कभी न खुद चल पाया साहिल, किया मौज़ों ने ही आकर श्रृंगार।। मौज़ों के प्यार की गहराई, क्यों साहिल को समझ नहीं आई?? सागर हो जिन मौज़ों का बिछौना, सूखे नाले से झूठी ही आस लगाई।। प्रेमजल की बूंदों से सूखा नाला भी, बन सकता है अति खास। साहिल से टकरा कर मौज़ें अपने ही, अस्तित्व का कराती हैं अहसास।। हर रूप में मौज़ों ने खुद को ढाला, मौज़ों ने सदा साहिल को संभाला। आया जब भी बुरा वक्त कोई, थी मौज़ें हीं, जिन्होंने हल निकाला।। सहज,स्वछंद,मौज़ों की मस्ती साहिल कभी नहीं पाया संभाल जाने कब कब उसने कोसा मौज़ों को खुद की कमियों से था बुरा हाल।। कभी ठहरी सी,कभी धीमी सी चलती, कभी तूफान की सरगम मौज़ों ने गाई। साहिल ऐसा पत्थर दिल था, न की कभी मौज़ों की सुनवाई।।

क्या,कब,कैसे और कितना

क्या क्या,कब कब,कैसे कैसे,कितना कितना मात पिता बच्चों के लिए करते हैं, इस बात का तो लग ही नहीं सकता हिसाब। कोई तराजू आज तलक नही बना जो उनके स्नेह,धीरज,त्याग,समर्पण को तौल सके, या लिख सके उस हिसाब की कोई किताब।। ये सर्वकालिक,सार्वभौमिक सत्य है।।

रूठा हो गर कोई आपसे

रूठा हो गर कोई आपसे, आज मना लेना उनको, छोड़ अहम की व्यर्थ दीवार। हो सकता है वे जग ही छोड़ जाएं, करते करते आपके मनाने का इंतज़ार।। सक्रांति है एक दूजे को मनाने का त्यौहार, ये गिले शिकवे कुछ साथ नहीं जाएंगे, कर लेना इस सत्य को स्वीकार।। खुशी,शांति,मस्ती आनन्द और दान, ये उपहार हैं सक्रांति के, संग हैं श्रद्धा,प्रेम और मुस्कान।।

लोहड़ी का त्यौहार

नाचता,गाता,उत्सव बनाता आ गया लोहड़ी का त्यौहार, साँझी खुशियाँ, साँझे अहसास,मस्ती इसका अनमोल उपहार।। पकी फसलों का उत्सव ये बनाता,उमंगों से इसका गहरा नाता, लोहड़ी जला कर पूजन करना,सबको तहे दिल से है भाता।। नीरस जीवन मे रंग भरता, करता जीवन ये ख़ुशगवार, सर्वे भवंतु सुखिनः की सोच ही है इस पर्व का मुख्य आधार।। हम सबके हैं सब हमारे हैं,अहम से वयम का सुना रहा है सार, चितचिंता हर लेता है ये,होते खुशियों के दीदार।। नाचता गाता,उत्सव बनाता,आ गया लोहड़ी का त्यौहार।।

कोई भी नाता

माँ से प्यारा, माँ से गहरा,हो ही नही सकता जग में कोई नाता, ये बात दूसरी है ये फलसफा देर से है लोगों को समझ मे है आता। माँ की रचना रच कर तो खुद हैरान हो गए होगा विधाता।।

हक उसका भी है

हक उसका भी है जन्मदिन पर बच्चे के मिले संग संग माँ को भी बधाई, अपनी जान पर खेल कर ही तो है वो बच्चे को जग में लाई।। ए खुदा बस इतना बता दे,किस माटी से तूने माँ है बनाई, आती है जब बेला जन्मदिन की,वो हौले से जेहन में आई।। हर संज्ञा,सर्वनाम,विशेषण का बोध कराने वाली, हर समस्या का समाधान है वो बताने वाली, यूँ ही तो नही कहा जाता माँ को पूरे जग में निराली।। घर के गीले चूल्हे में सतत जलती है ईंधन सी मां, शिक्षा को संस्कार का सदा तिलक लगाती है माँ, हर सम्भव प्रयास से धरा को स्वर्ग बनाती माँ, चितचिंता हरने वाली,जीवन को सहज बनाती माँ, जीवन के तपते मरुधर में शीतल ठंडी ठंडी छां, उफनते दूध पर ठंडे छींटे सी प्यारी प्यारी माँ, उत्सव,पर्व,उल्लास,रीति रिवाज है माँ।। जब इतनी अहम है माँ जीवन में, तो क्यों न बजे सदा उसकी ममता की शहनाई, हक उसका भी है,जन्मदिन पर बच्चे के,माँ को भी हो ढेर बधाई।।

हर द्रौपदी को नहीं मिलते कान्हा

हर द्रौपदी को नहीं मिलते कान्हा,दुशासन हर मोड़ पर मिल जाते हैं, भरी सभा में होता है चीर हरण,असहाय सा खुद को हम पाते हैं।। नित होती है कलंकित मानवता,आत्मा करती है चीत्कार। होता है मलिन जब आँचल किसी का,ज़र्रा ज़र्रा करता है हाहाकार।। जाने कितनी कोमल कलियों को,जिस्म के सौदागर बाजारों में लाते हैं, हर द्रौपदी को नहीं मिलते कान्हा,दुशासन हर मोड़ पर मिल जाते हैं।। भरी सभा मे हुई अपमानित द्रौपदी, पांडवों ने कैसे स्वीकार किया??? भीष्म,द्रोण, विदुर सब मौन रहे,साथ किसी भी सभासद ने न दिया। क्यों नहीं अंनत गगन डोला,क्यों नही फटा धरा का हिया?? पुरुष प्रधान समाज है ये,अग्निपरीक्षा भी दे कर न बच पाई सिया।। नहीं लेते हर युग में राम जन्म,रावण घर घर में मिल जाते हैं, घर की लाज़ नहीं घर मे सुरक्षित,असहाय सा खुद को हम पाते हैं। हर द्रौपदी को नहीं मिलते कान्हा,दुशासन हर मोड़ पर मिल जाते हैं।। दुष्ट दुशाशन ने जब खींचा आँचल,द्रौपदी ने हृदय से कान्हा को याद किया। तुम ही लाज़ बचाओ गिरधर,पाँच पाँच पतियों ने भी न मेरा साथ दिया।। बड़ों के आगे हुआ अपमान कुल वधु का, क्रोधाग्नि से जल रहा मेरा जिया।। सुन पुकार फिर आए कान्हा,

writing skills

stages of time

अतीत,वर्तमान और भविष्य में हुआ एक दिन कुछ ऐसा वार्तालाप। वर्तमान ने सराहा अतीत को,माना हर गुजरे पलों के थे बेहतर सारे क्रियाकलाप।। अतीत,जब तुम चले जाते हो,तब पता चलती है कीमत तुम्हारी। क्यों नही जीये वो पल हमने,करते हो आज तुम जिनपर सवारी।। जीवन मे बीता हर पल बन जाता है एक दिन इतिहास। होगा तभी गर्व उस इतिहास पर हमको,गर जीवन में करेंगे कुछ खास।। फिर कहा अतीत ने वर्तमान से,मत करो पछतावा गुजरे कल का,सीखो अपने आज को खुल कर जीना। न करो वर्तमान में मुझ पर पछतावा और भविष्य की अति चिंता,फिर गमों को नही पड़ेगा पीना।  अतीत की सीख ने दी वर्तमान को शिक्षा ऐसी, नज़रिया उसका बदल डाला। भविष्य भी हो जाएगा स्वतः उज्ज्वल,व्यर्थ में गर चिंता का कीड़ा न पाला।। सुन अतीत और वर्तमान की बातें,भविष्य मन ही मन मंद मंद मुस्काया। जब ये जानते ही नही क्या छिपा है गर्त में मेरे,क्यों व्यर्थ ही अपना समय गंवाया।। सही समय पर सही कर्मों को,क्यों नही इंसा ने जीने का आधार बनाया। सुख,समृद्धि,यश,कीर्ति आ जायेगी स्वतः ही,क्यों इंसा ये समझ नही पाया।। किस सन्दर्भ में कब किसको कैसी होती है अनुभूति,प्रभु की है अजब अनोखी माया। कूड़े क

My Mother--An Ocean of Love

they are parents

kitna achha hota

विरहणी आत्मा

बड़ा कौन

जिस दिन

हे गौतम बुद्धा

जहाँ दर्द पाता है चैन

जुड़ाव और लगाव

कह दिया हमने

कह दिया हमने तूफानों से,करनी है जो तबाही कर लो,हमने तो खामोशियों से कर लिया है याराना।। कह दिया हमने महफिलों की रौनकों से,हो जाओ गुलजार होना है जितना तुमको,हमने तो तन्हाइयों का गुनगुना लिया है फसाना।। कह दिया हमने हर उस धुंधले मंज़र को,मत ठहरो बन आँख का पानी,ऐसी लाओ सुनामी कि हो जाए वीराना।। कह दिया हमने खुशियों से,अब दो या न दो दस्तक ज़िन्दगी के दरवाजे पर,गम का हिया हो गया है दीवाना।। कह दिया हमने धड़कते दिल से,धड़कन से बेशक करो दोस्ती या दुश्मनी,है बड़ा मतलबी खुदगर्ज सा ज़माना।। कह दिया हमने ज़माने की खुदगर्ज़ी से,चाहे बजा लो तुम कितनी ही शहनाई,हमे नही सुनना भलाई का झूठा तराना।। कह दिया हमने उस परवरदिगार से, अपनी दया की कृपा सदा सिर पर रखना,हम तो कठपुतली सा अस्तित्व लिए जग में आए हैं।। कह दिया हमने संगीत की हर सरगम से,कैसा भी कोई भी सुर हो,तुम अब गाओ कोई भी गाना, हमे तो याद नही आता अब कोई भी तराना,, माँ की लोरी ही है अनहद नाद इस जग में, नही कर पा रहे सहन उसका अचानक यूँ चले जाना।। सिसकती है सिसकी,सिहरती है कसक,नयनो को आता है भीग जाना, मन धुआँ धुआँ, हर मंज़र धुंधला,गले मे किसी गोले

तेरा मंगल,मेरा मंगल

rangrej

माँ धीरे धीरे जाने लगी

मात पिता

शांति और खुशी

सागर से गहरी हिंदी तूँ

पावन हिंदी भाषा

माँ, मातृभूमि,मातृभाषा

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वे कहाँ हैं????

एक अनजान को खातिर

जिस पथ पर

जिस पथ पर मुझे मेरे अपने मिले, जिस पथ पर मेरे कुछ सपने पले, जिस पथ पर मुझे माँ तात मिले, जिस पथ पर अहसासों को इज़हार मिले, जिस पथ पर शिक्षा को संस्कार मिले, जिस पथ पर मन के विकार धुले, जिस पथ पर गिले शिकवे दूर हुए, जिस पथ पर आशा के पुष्प खिले, जिस पथ ने मुझे कुछ मेरे मित्र दिए, जिस पथ पर मुझे मिला हमराही, जिस पथ पर करी मैंने दिल की चाही, जिस पथ पर ज़िन्दगी ने पाठ पढ़ाये, जिस पथ पर हिवड़े को उदगार मिले, नववर्ष पर इस पथ के लिए यही कहती हूँ नमामि,नमामि,नमामि,नमामि,नमामि।।

जब साँझ घणी गहराने लगे

apne

zindgi ek pheli