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मेहनत और आलस्य

ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर एक दिन दोनों मिल जाते हैं। करते हैं कुछ बातें ऐसी,जिसे हर युग मे सार्थक सा हम पाते हैं।। देख दमकता चेहरा मेहनत का, किए प्रकट आलस्य ने निज यूँ उदगार। कभी नही थकती,कभी नहीं रुकती, कभी नहीं करती तुम हाहाकार।। दिन पर दिन हो जाती हो और भी सुंदर, कहो कैसे संभव है ये चमत्कार???? जग पूरा मानता है लोहा तुम्हारा, है अति मनभावन तेरा दीदार।। सुन आलस्य की बोली बातें, मेहनत मंद मंद मन से मुस्काई। सुनो प्रिय तुम्हे आज बताऊँ, मुझे तो युगों युगों से ये बात समझ में है आई।। "कर्म"हैं मेरे प्यारे"प्रीतम" निस दिन रंग उनका मुझ पर चढ़ जाता है। हो जाती हूँ मैं और भी सुंदर, हर कोई मुझे दमकता हुआ पाता है।। तुम्हारी तो सोच ही है दुश्मन तुम्हारी, सोच से कर्म और कर्म से ही तो, निश्चित होते हैं परिणाम। तुम हाथ पर हाथ धरे रह गए युगों से, क्यों थके नहीं लेलेकर विश्राम???? मुझे तो लगते हो हताश, रोगी, अवसादग्रस्त से तुम, जीने का मतलब नही होता आराम।। जिसे तुम कहते हो आनंद और मस्ती, मैं कहती हूँ है वो जीना हराम। हो जाओ विलय तुम मुझ में साथी, मानवता करेगी फिर तुमको भी सलाम।। कर्म