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अपने ही

नासूर

अपने ही जब देते हैं जख्म Thought by Sneh premchand

अपने ही जब देते हैं जख्म तब, मरहम कहीं नहीं मिलता। बागबान ही गर उजाडे चमन को, एक भी पुष्प नहीं खिलता।।       स्नेह प्रेमचंद

बदल रही ज़िंदगानी

भर रहे हैं जख्म प्रकृति के हो रहा स्वच्छ निर्मल नदियों का पानी। मैली गंगा शुद्ध हो गई, बदल गयी घाटों की ज़िंदगानी         स्नेहप्रेमचंद ,