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लंगोट से कफ़न तक thought by snehpremchand

लंगोट से शुरू होकर सफर ज़िन्दगी का, कफ़न तक जा कर खत्म हो जाता है। क्यों जोड़ते हैं हम इतना कुछ जब कुछ भी    स्थाई नहीं इस नश्वर ,  अस्थाई जग में, यह सत्य क्यों समझ नहीं आता है??? न जेब लंगोट में थी,न जेब कफ़न में है   फिर क्योंआजीवन  इंसा संचय करता जाता है? ? एक दिन तो डोली ले ही जाते हैं चार कहार । छूट जाता है नेहर फिर, ससुराल में ही,  निभाना पड़ता है एक नियत किरदार ।। फिर एक दिन इस रंगमंच का पर्दा, हौले से जाने किस लम्हे गिर जाता है।। चार दिन रोते हैं मात पिता और बन्धु भाई, फिर जीवन सबका सामान्य हो जाता है।। एक नियत समय के लिए ही तो लाडो, बाबुल के अंगना में चहकती है। फिर उड़ जाती है ये सोन   चिरिया किसी और ही आँगन में महकती है।। मिलते हैं इस सफर में रिश्ते नए नए, वो सारे किरदार बखूबी निभाती है। फिर एक दिन चार कहारों संग, सदा के लिए चली जाती है।। छोटी सी कहानी ,छोटा सा फसाना आसानी से ही तो समझ आ जाता है। फिर क्यों जीवनपथ को बनाते हैं हम अग्निपथ, सीधा सरल सहज मार्ग हमे नज़र नही आता है। गौण मुख्य और मुख्य गौण जाने कब हो जाता है। आती है जब बात समझ, स्टेशन ही आ जाता है। लँग