Skip to main content

Posts

Showing posts from April, 2020

मज़दूर

मेहनत की सड़क पर सतत कर्म का पुल बनाता है मज़दूर , मेहनत के मंदिर में सदा कर्म की घण्टियाँ बजाता है मज़दूर, कर्म की कावड़ में परिश्रम का सतत जल भरता है मज़दूर, जिन महलों में हम चैन से जीते हैं, उनको अपने पसीने की बूंदों से निर्मित करता है मज़दूर, देख कर भी जिसको अनदेखा कर देते हैं हम, सच मे वो होता है मज़दूर, शाम होने तक काम करते करते थक कर जो हो जाता है चूर, औऱ नही,मेरे प्यारे बंधुओं, होता है एक सच्चा मज़दूर             Snehpremchand

हवाले। thought by snehpremchand

अल्फ़ाज़ों की मिट्टी से, भावों के पानी से, जब मैंने कविता के भवन के लिए,  किया अहसासों को अभिव्यक्ति के हवाले, सृजन ले चुका था जन्म सहजता से, जैसे गइयाँ चराते हैं कई ग्वाले।।

किरदार thought by snehpremchand

फिर पर्दा गिरा फिर नहीं रहा कोई किरदार, ये ज़िन्दगी एक रंगमंच है, आज तेरी बारी, कल मेरी बारी का बजेगा गिटार ।।         Snehpremchand

रहें न रहें हम thought by snehpremchand

रहें न रहें हम महका करेंगे, कोई नगमा,कोई शेर,कोई कविता में चहका करेंगे।।             Snehpremchand

स्वार्थ thought by snehpremchand

स्वार्थ का जीता जागता पुलिंदा है इंसान, जहां लगता है उसे फायदा,वहीं बनाना चाहता है पहचान।।               Snehpremchand

दरार thought by snehpremchand

दरार चाहे दीवार में हो या  हमारे वजूद में हो दरकने का खौफ तो दोनों को ही होगा। दीवार गिरेगी तो मकान टूटेगा, पर वजूद चोटिल हुआ तो घर टूटेगा। इस सूरत ए हाल में दो राहें हैं या तो मरम्मत या फिर बिखराव अहसास ए जुर्म होगा तो मरम्मत  की जा सकती है, पर वही पहले सी फ़ितरत रहेगी तो बिखराव ही एकमात्र रास्ता है, हमारा चयन ही हमारे भाग्य को निर्धारित करेगा चयन कर्म का ही दूसरा नाम है। मरम्मत मकान और घर  दोनों को बचा सकती है, बिखराव तो बहुत ही गहरे  मारसिम का  कत्ल ए आम कर देगा। सोच,कर्म,परिणाम की त्रिवेणी  सदा संग संग बहती आई है, जैसी सोच,वैसे कर्म,वैसे ही परिणाम।। स्नेहप्रेमचन्द मारसिम---रिश्ता

महाप्रलय। thought by snehpremchand

बेटी दुखी है,तो तूफान आता है, बहु दुखी है,तो सुनामी आती है, पर माँ बाप अपने ही घर मे दुखी हैं, तो महाप्रलय आती है।।                       स्नेहप्रेमचन्द

लगाम। thought by snehpremchand

गलतियों के गलियारे बहुत संकीर्ण होते हैं, कभी मन्ज़िल तक नहीं ले जाते। गलतियों के दलदल में इंसान धँसता  चला जाता है, ये कभी ऊपर ले कर नहीं आते।। मन के घोड़े तो दौड़ते रहते हैं, चहुँ दिशा में, क्यों उन पर हम विवेक की लगाम नहीं लगाते?? बेहतर हो लगा दें हम कभी कभी  इन्हें सुसंस्कारों की चाबुक, ज़िन्दगी के सफर को क्यों  इतना कठिन हैं बनाते??? स्नेहप्रेमचन्द

फिजां thought by snehpremchand

सदा नहीं रहने वाली खिज़ा,  एक दिन लौटेगी ही फिज़ा, देर है मगर अंधेर नही, है मन मे इतना विश्वास। जीत जाएगी मानवता, हारेगी ये वैश्विक महामारी, धड़कती रहेगी दिल मे धड़कन , चलता रहेगा तन में  श्वाश।। ख़ौफ़ज़दा नहीं होना है, करना है हर संभव प्रयास। जो लड़े हैं वही तो जीते हैं, बस टूटे न मन से कभी आस।। हर धर्म का हर जाति का व्यक्ति, आज कर रहा यही अरदास। हे ईश्वर सम्भाल लेना हमें,  बच्चे तेरे हम हैं अति खास।। विघ्नहर्ता भी तूँ,संकटमोचक भी तूँ  है तूँ जैसे पहुपन में सुवास। साँझी प्रार्थना में होती है शक्ति, हो सबका साथ,सबका विकास ।। सदा नहीं रहनी ये खिज़ा,  एक दिन  लौटेगी ही फिजां, देर है मगर अंधेर नही, है मन मे इतना विश्वास।  क़ज़ा पर नहीं, है भरोसा कर्म पर, है तेरी रहनुमाई की एहतियाज।। स्नेहप्रेमचन्द रहनुमाई -– राह दिखाना एहतियाज---आवश्यकता फिज़ा---बहार खिज़ा-- पतझड़

फ़ितरत thought by snehpremchand

गलती एक बार होती है बार बार नहीं, बार बार किया गया कोई भी कार्य गुनाह होता है। जिसका आधार हमारी फ़ितरत होता है।आत्ममंथन के साबुन से गलती के मैल को बखूबी धोया जा सकता है।पर जो काम हम अपनी फ़ितरत के प्रभाव में करते हैं उन्हें धोने के लिए कोई साबुन नही बना।फ़ितरत इंसान से बार बार गलत काम करवाती है।वैसे तो अन्तरात्मा उनकी जागती नही,अगर यदा कदा कभी ऐसा हो भी जाए,तो प्रभाव क्षणिक होता है।

कुछ रह तो नहीं गया

कुछ रह तो नहीं गया लाडो, पीहर से ससुराल जाती बिटिया से जब मां ने पूछा झट से मुड़ी बिटिया,और ये सब बोली।।

मरासिम thought by snehpremchand

बहुत नाजुक से हो गए हैं मरासिम आजकल, पलभर में ही आ जाती है दरार। अल्फ़ाज़ों के हथौड़े से दरक जाते हैं पल भर में ही,कटु वाणी बन जाती है कटा र।।               स्नेहप्रेमचन्द

विनाश काले विपरीत बुद्धि। thought by sneh premchand

मात्र पाँच गाँव ही तो मांगे थे  शांति दूत माधव ने पांडवों के लिए, दुर्योधन ने इसके लिए भी कर दिया इनकार। सुईं नोक बराबर भी नहीं दूँगा भूमि, शांति प्रस्ताव को कर दिया तार तार।। विनाश काले विपरीत बुद्धि, इसे करना पड़ेगा स्वीकार। कुछ भी तो साथ नहीं जाना, मिले सबको अपना अपना अधिकार।। हो न युद्ध फिर कोई महाभारत सा, अपने ही अपनों पर न चलाएँ कटार। अपनों से न जीत भली है, और न भली होती है हार।।           स्नेहप्रेमचन्द

कतरा कतरा thought by sneh premchand

कतरा कतरा पिंघल रही हूं, एक नए सांचे में ढल रही हूं, कभी धूप घनी कभी छांव घनी, खुद को ही पाठ ज़िन्दगी के पढ़ा रही हूं, ख़्वाइशों को दे थपकी समझौते की, उन्हें हौले हौले सुला रही हूं, जब भी छेड़ा माज़ी को अपने, लगा वर्तमान को सता रही हूं, मुस्तकविल भी लगता है  सहमा सहमा, लगा अंतर्मन को जगा रही हूं, कभी बनती हूँ नज़्म कभी गीत कोई, जैसे अनहद नाद ज़िन्दगी को सुना रही हूं, कतरा कतरा पिंघल रही हूं, एक नए सांचे में ढल रही हूं, न करती हूं अब कोई ईसरार जैसे रूठे मन को मना रही हूं मिश्री सी घुल गई औरों में, गैरों को अपना बना रही हूं।। कतरा कतरा पिंघल रही हूं।।           स्नेहप्रेमचन्द

कलाकार thought by snehpremchand

बहुत ही खास मूड में होते होंगे भगवान। जब रचते होंगे किसी कलाकार को, कला से करते होंगे धनवान। योग्य पात्र समझ कर उसको, दे देते होंगे कला का दान। कोई पिछले जन्म के पुण्यों का ही, मिलता होगा उसे इनाम।।

लेखन

न सरहद,न सीमा,न अंत कोई लेखन का, असीम ब्रह्मांड सा इसका विस्तार। जितनी होती ज़िन्दगी की महक सूंघने की शक्ति बढ़ता रहता उतना ही इसका आकार। जितना गहरा जाओगे,भावों के मोती अल्फ़ाज़ों के हाथों से,बन्धु खोज कर लाओगे।।

उऋण। thought by snehpremchand

माँ सरस्वती और मात पिता के ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता कोई भी रचनाकार। अक्षरज्ञान ही न कराते मात पिता तो, भावों को हम अल्फ़ाज़ों का न दे पाते आकार।।           स्नेहप्रेमचन्द

दरकिनार thought by snehpremchnd

अपने ही जब देते हैं जख्म, वजूद में ही आ जाती है दरार। कुछ बातें चाह कर भी हम नहीं कर सकते दरकिनार।।             स्नेहप्रेमचन्द

दरार thought by snehpremchand

कई बार अज़ीज़ भी बन जाते हैं अग्यार कहीं न कहीं वजूद में आ जाती है कोई दरार।।           स्नेहप्रेमचंद

फेरहिस्त

ज़मी है तो आसमान भी है समस्या है तो समाधान भी है गीता है तो कुरान भी है पशु हैं तो इंसान भी हैं श्राप है तो वरदान भी है निर्धन हैं तो धनवान भी हैं ज्ञानी हैं तो नादान भी हैं दुर्योधन है तो शाम भी है रावण है तो राम भी है शैतान है तो भगवान भी है ज़िन्दगी की फेरहिस्त में दोनों ही प्रकार के भाव हैं। हमारा चयन ही हमारे भाग्य का निर्धारक होता है।।                 स्नेहप्रेमचंद

अधिकार thought by snehpremchand

ज़िन्दगी उस दिन तक अधिकार है जब तक मात पिता इस जग में रहते हैं।उनके जग से जाते ही ज़िन्दगी ज़िम्मेदारी बन जाती है।।                 स्नेहप्रेमचंद

समाधान। by snehpremchand

ज़मीं है तो आसमान भी है, समस्या है तो समाधान भी है।। है अँधेरा घना तो उजियारा भी है, चाँद है तो सितारा भी है।। है मझधार तो किनारा भी है,                   स्नेहप्रेमचन्द

कठपुतली

कठपुतली से ओ इंसान अपनी हस्ती को पहचान। कुदरत के इस कदर के आगे, देख खड़ा तूँ कितना परेशान।।           स्नेहप्रेमचंद

मन के भीतर

आई बेला विचरण करने की, अब मन के गलियारों में। मन के भीतर ही राम मिलेंगे, न मन्दिर,न मस्ज़िद,न गुरुद्वारों में।।         स्नेहप्रेमचंद

बदल रही ज़िंदगानी

भर रहे हैं जख्म प्रकृति के हो रहा स्वच्छ निर्मल नदियों का पानी। मैली गंगा शुद्ध हो गई, बदल गयी घाटों की ज़िंदगानी         स्नेहप्रेमचंद ,

धीरे धीरे मैं बदलने लगी हूँ। poem by snehpremchand

धीरे धीरे मैं बदलने लगी हूँ, गहरी साँझ सी ढलने लगी हूँ। होने लगा है परिचय मेरा खुद से ही, एक नए व्यक्तित्व में पिंघलने लगी हूँ। अब नहीं होते कोई गिले शिकवे किसी से, समझौतों के कलमे पढ़ने लगी हूँ। अब नाराज़ भी नहीं होती किसी से, खुद ही रूठने खुद ही मन ने लगी हूँ। उफ़नती नदिया सी बहती रहती थी  जो कल कल मैं, अब शांत सागर  सी सिमटने लगी हूँ। छोटी छोटी सी बात माँ कानों में कहने वाली, अब बड़े बड़े मसलों पर भी सब ठीक है , बड़ी सहजता से असत्य कहने लगी हूँ। मैं धीरे धीरे बदलने लगी हूँ। बात बात पर मुखालफत करने वाली मैं, हर बात पर हामी भरने लगी हूँ। अक्षर ज्ञान पाकर खुद को  समझती थी जो  जहीन मैं, अब ज़िन्दगी की पाठशाला के  पढ़ पाठ, ध्वस्त परस्त सी होने लगी हूँ। मैं धीरे धीरे बदलने लगी हूँ।। कोई चिंता न छूती थी चित्त को कभी मेंंरे, अब लम्हा दर लम्हा   चिंतन से,  रोज़ ही रूबरू होने लगी हूँ। निर्धारित पाठयक्रम रटने वाली सी मैं, साहित्य के आदित्य से दमकने लगी हूँ। बाहर घूमने को  तवज्जो देने वाली, मन के गलियारों में विचरण करने लगी हूँ। जमा घटा म

ज़रूरी है। thought by snehpremchand

रोशन मुस्तकविल के ख्वाब के लिए ज़रूरी है कि हम अपने वर्तमान के खेत मे सुसंस्कार और सुशिक्षा के बीज अंकुरित करें,सदभाव का पानी दें,सौहार्द के आफ़ताब की गुनगुनी धूप दें,प्रेम की पवन चले,इस अहसास ए ज़िम्मेदारी का सबको अहसास हो।।           स्नेहप्रेमचंद

मित्र

मित्र से बड़ा हितैषी कोई नही

कोई खबर thought by snehpremchand

कोई खबर न होना भी अच्छी खबर है,सब ठीक होना भी बहुत बड़ी राहत की बात है,एक निर्धारित तरीके से जो जीये जा रहे हैं जीवन, शायद ईश्वर की सबसे बड़ी सौगात है,जो चीज़ हमें आम सी लगती है किसी के लिए वह बहुत बड़ी बात है,एक सपना है,जो दिया है ईश्वर में हमे,उसके लिए हम शुक्रगुजार हो,हमे अच्छी तालीम,अच्छे मात पिता मयस्सर हुए,कितनी बड़ी बात है,और एक बात समझ आती है प्रेम ही हर रिश्ते का आधार है।।                 स्नेहप्रेमचंद

लेखन। thought by snehpremchand

लेखन सीखना नहीं पड़ता,हां शब्द ज्ञान ज़रूरी है,सुंदर सार्थक अल्फ़ाज़ों के लिए। अहसासों की कोई किताब नहीं होती।ज़िन्दगी के अनुभवों की संतान हैं ये,कल्पनाओं की कोई सरहद नही होती, अनन्त गगन सा विस्तार अपने आँचल में समेटे है ये,हालातों के प्रति हमारी सम्वेदनाएं ही लेखन का आधार है।जब किसी विशेष परिस्थिति में खुद को रख कर देखो,सब समझ आ जाता है।हमारी समझ,सम्वेदना,अनुभव,सोच खुद ही अल्फ़ाज़ों और भावों का चयन कर लेती हैं, हमें ज़्यादा प्रयास भी नहीं करना पड़ता।सहज,सरल,स्वभाविक भावों की सरिता में कविता की नाव सुंदर अल्फ़ाज़ों की पतवार संग निर्बाध गति से बहने लगती है।यह स्वानुभूति पर आधारित सत्य है।लेखन वह भाषा है जो बोल कर नही लिख कर मन की बात कहती है।लेखन हमारी भावनाओं का वो प्रतिबिम्ब है,जो मन की हर तस्वीर को अंकित कर देता है।लेखन हृदय सागर में वो लहर है जो सारे ज़ज़्बातों को बहा कर बाहर ले आता है।लेखन वह सुर है जो सच्चे भावों की संगीत सरिता सदा बहाता है।लेखन अनन्त ब्रह्मांड में गूंजता वो अनहद नाद है जो हमारी सोच के पंखों को परवाज़ दिलाता है,तन का परिचय रूह से करवाता है।हमारी सोच के आयाम बदल देता है,सोच से ह

थप्पड़। thought by snehpremchand

थप्पड़  मात्र थप्पड़ ही नहीं है थप्पड़ की थाप इतनी  गहरी होती है जिसकी गूंज हमारे अंतर्मन में नहीं, पूरे ब्रह्मांड में गुंजित होती है।हमारे चेतन, अचेतन मनों का स्थायी हिस्सा बन जाती है।थप्पड़ को भावों को कुचलने वाला बुलडोज़र कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।थप्पड़ तो पूरे वजूद को काटने वाला निर्मम हथौड़ा है।इसका जिस्मानी दर्द बयां किया जा सकता है  पर जेहानी दर्द को बयां करने के लिए आज तलक कोई अल्फ़ाज़ ही नहीं बने हैं।थप्पड़ तो वो सुनामी है जो हमारे व्यक्तिव, हमारे अस्तित्व को हिला कर तो रख देती है और चित्त से चिंतन चुरा कर चिंता दे जाती है। अहसास ए दर्द को बयां करना आसान नहीं।थप्पड़ एक ऐसा सक्रिय जवालामुखी है, जिसमे से पीड़ा का लावा सतत रिसता रहता है।ज़ख्म को नासूर और चिंगारी को शोला बना देता है।ये तो वो मिटिया तेल है जो रिश्तों की गरिमा को लम्हा दर लम्हा जला कर राख कर देता है।थप्पड़ जिस्म पर नहीं रूह पर की गई चोट है।इसके जिस्मानी निशान तो कुछ समय के बाद चले जाते हैं,पर जेहानी निशान तो सदा के लिए ज़ेहन में अंकित हो जाते हैं।थप्पड़ वो नाग है जो सहजता को डस लेता है।वो अपमान है जो दावानल की तरह बढ़ता ही र

शनै शनै thought by snehpremchand

कोई भी रिश्ता अचानक नहीं मरता, किसी भी रिश्ते को अटैक नहीं पड़ता, न ही किसी रिश्ते का यकायक हार्ट फ़ेल होता है,न ही अचानक किसी रिश्ते का फ़्रैक्चर होता है,अचानक उसे बदहज़मी भी नही होती न ही किसी रिश्ते का एक्सीडेंट होता है, पहले उस रिश्ते में हल्की सी हरारत होती है मनभेद दी,फिर मनभेद का बुखार चढ़ता है, फिर तूँ तड़ाक और झूठे अहंकार के फिट्स पड़ते हैं।फिर खामोशी की लंबी टीबी हो जाती है,फिर शनै शनै वो क्षीण हो जाता है,काफी समय तक सुलह की संभावना के वेंटीलेटर पर भी रहता है,और फिर एक दिन उसका अंतिम संस्कार इस लिए हो जाता है क्योंकि दोनों ही पक्षों की ओर से सुलह की कोई पहल नही होती,न ही कोई मध्यस्था करके सुलह करवाता है,यह सत्य है।।           स्नेहप्रेमचंद

रिश्ते thought by sneh premchand

रिश्ते जब एक बार छुट जाते हैं तो वे धीरे धीरे छूट ही जाते हैं।जब रिश्तों के पौधे को मुलाकातों का पानी,बातचीत की गुनगुनी धूप और अपनत्व की हवा नहीं मिलती,तो वह असमय ही पतझड़ झेलता है,फिर उनका बसन्त कभी नहीं आता ।।               स्नेहप्रेमचंद

सतयुग। thought by snehpremchand

सतयुग या कलयुग कोई विशेष समय परिधि नहीं अपितु मनः स्थिति के विविध अहसास हैं। सात्विक सोच है तो सतयुग है,हम चाहें तो आज से अभी से इसी पल से सतयुग आ सकता है बशर्ते हमारी सोच बदले, क्योंकि सोच से ही कर्म और कर्म से ही परिणाम सुनिश्चित होते हैं,तामसिक प्रवर्तियों का निषेध ही तो सतयुग है।हम किसी की मुस्कान का कारण बनते हैं तो सतयुग है,किसी के कष्ट का कारण बनते हैं तो कलयुग है।मांसाहार,मदिरापान, शोषण,अत्याचार,हिंसा, संवेदनहीनता ये सब कलियुग के ही विविध रूप हैं,इनका वर्जन ही सतयुग है।मन मे सत्कर्मों का अनहद नाद जब बजने लगे,प्रेम की अनन्त स्वरलहरियां सर्वत्र गुंजन करने लगें,अहम से वयम का तराना बजने लगे,पूरी धरा ही एक परिवार की तरह लगने लगे,सुख दुख साँझे होने लगे,पर पीड़ा का बोध होने लगे,मन पर कोई बोझ न हो, जब व्यर्थ के आडम्बर,दिखावे की जगह सादगी,सरलता और सहजता लेले,समझो सतयुगआ गया।सन्तोष,क्षमा,त्याग,उदारता,विनम्रता,जागरूकता,सुशिक्षा,सुसंस्कार  संयम,चेतना,आत्ममंथन, आत्मबोध,ज्ञान,करुणा सब सतयुग की संतान हैं।जब लेने की बजाय देने में आनन्द आने लगे,समझो सतयुग की चौखट पर दस्तक दी जा चुकी

माँ जाई। thought by snehpremchand

भावनाओं की कलम सर, अल्फ़ाज़ों की स्याही से, अभिव्यक्ति की किताब पर, जब कुछ लिखने बैठी, तूँ ही तूँ नज़र आई, कोई और नही तूँ, है री मेरी माँ जाई ।।         स्नेहप्रेमचंद

श्रृंगार। thought by snehpremchand

भावों की दुल्हन को जब अल्फ़ाज़ों का दूल्हा अपनी जीवनसंगिनी कर लेता है स्वीकार, अनेकों कल्पनाएं आ जाती हैं दौड़ी अभिव्यक्ति का करने श्रृंगार। अनुभव तो पहले से ही होता है खड़ा उनके द्वार।।          स्नेहप्रेमचंद

साथ। thought by snehpremchand

गर कुछ लम्हे समेटने की इजाज़त मिलती,तो मैं ज़िन्दगी की कोख से वो लम्हे चुराती,जिनमे माँ साथ थी।।

अच्छा लगता है। thought by snehpremchand

रूठना भी तब अच्छा लगता है, जब कोई मनाने वाला हो  रोना भी तब अच्छा लगता है जब कोई आंसू पोछने वाला हो गुनगुनाना भी तब अच्छा लगता है जब कोई सुनने वाला हो सजना भी तब अच्छा लगता है जब कोई देखने वाला हो और  कहीं जाना भी तब अच्छा लगता है  जब कोई बुलाने वाला हो इंतज़ार करने वाला हो मायका भी तब अच्छा लगता है जब वहां मा बाबा हों।।           स्नेहप्रेमचंद

हानि thought by snehpremchand

इस जग को अधिक हानि बुरे लोगों से नहीं होती,बल्कि कुछ बुरा होने पर अच्छे लोगों की खामोशी के कारण होता है।द्रौपदी चीरहरण के समय समस्त सभासद,उसके पांचों पति पांडव,गुरु द्रोण,पितामह भीष्म,विदुर,महाराज धृतराष्ट्र सब मौन थे।अन्याय की चक्की चलती रही,क्रिया सही प्रतिक्रिया का इन्तज़ार करती रही।अन्याय अट्हास करता रहा, क्रूरता मंद मंद मुस्कुराती रही,बेबसी कराहती रही,न्याय ने भी गांधारी की तरह अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी थी, राजवंश की मर्यादा सिसकती रही,घुटती रही,रोती रही,बिलखती रही।आरजुएँ दम तोड़ती रही,अनीति खिल खिलाती रही,क्या पितामह भीष्म की प्रतिज्ञा किसी की बेबसी,रुसवाई,  अस्मत और मान सम्मान से भी बढ़ कर थी।कदापि नहीं।उस सिसकते इतिहास के पदचाप आज वर्तमान में भी सुनाई पड़ते हैं। द्रौपदी को न्याय मयस्सर न हुआ,दुर्भाग्य जाग रहा था,सौभाग्य सो रहा था,गलत कर्म अपने चरम पर थे।जिल्लत गुर्रा रही थी,खौफ ए खुदा नदारद था,दुर्योधन की अहमकाना सोच  अंकुरित,पल्लवित और पुष्पित हो रही थी।पूरी अंजुमन में कोई भी द्रौपदी के हक में नहीं आया।। गलत को सही वक्त पर गलत कहना बहुत ज़रूरी है।साँप जाने के बाद लकीर पीटने

खैरख्वाह thought by snehpremchand

जिन्हें हमारा खैरख्वाह होना चाहिए वही लोग हमें दुख देने की फेरहिस्त में सबसे ऊपर होते हैं,शायद विडंबना की यही सही मायनों में सटीक परिभाषा है।अहसास ए ज़िम्मेदारी उन्हें छू कर भी नहीं जाता।या तो उनकी तरबीयत में कोई कमी रह जाती है,या उनकी अहमकाना सोच इसका कारण होती है।अहसास ए जुर्म हो तो खौफ ए खुदा भी हो।नेकी का आफ़ताब उनके जेहन में कभी नही चमकता।दूसरों के आब ए  चश्म से भी उन्हें कोई सरोकार नही होता।वे हमारी हर बात का समर्थन करें, ज़रूरी नहीं, पर हर हर बात की मुखालफत करें,ये तो कतई ज़रूरी नहीं।।         स्नेहप्रेमचंद आब ए चश्म---आंसू मुखालफत---विरोध

मात पिता। thoight by snehpremchand

जाने कितनी ज़द्दोज़हद,कितनी मेहनत,कितने समझौते,और कितनी ही छिपे हुए होंगे सतकर्म। माँ बाप यूँ ही नही करते परवरिश हमारी, मान लेते हैं इसे ही सबसे बड़ा धर्म।।

सोचते हैं। thought by snehpremchand

इस अस्थाई सी ज़िन्दगी में,अस्थाई सांसों की डोर लिए हम स्थाई रूप से इस जग में रहने की सोचते हैं। क्षणभंगुर से इस जीवन मे सबकुछ क्षणिक है जानते हुए भी मन मे अहंकार , ईर्ष्या , काम , मद , मोह जाने कितने ही विकारों को पालते रहते हैं।क्यों???           स्नेहप्रेमचंद

कड़वी वाणी thought by snehpremchand

किसी की कड़वी वाणी कटार से भी होती है     धारदार, कटाक्ष,व्यंग,पुत्र हैं ईर्ष्या के,कर जाते है मन को  तार तार, बोलना ही है तो मीठा बोलो,कहीं शब्द खामोशी से न जाएं हार।। अक्सर अल्फ़ाज़ घायल कर देते हैं इतना,जितना कर नहीं पाते हथियार।।                स्नेहप्रेमचंद

अहसास thought by snehpremchand

अब तो होने ही लगा है पूरा अहसास यूँ ही तो नहीं आया ये जलजला, जाने कितने ही सृष्टि में होंगे आह भरे श्वाश।। जाने कितने ही बेजुबान निर्दोष निरीह  प्राणियों पर चली होगी ये निर्मम कटार। जाने कितनी ही मजबूरियां सिसकी, घुटी और तडफी होंगी, शायद बेशुमार।। जाने कितनी छेड़छाड़ की इंसा ने प्रकृति से, देखता तो होगा वो परवरदिगार। जाने कितने ही बचपन चढ़े होंगे शोषण की वेदी पर, कितना ही हुआ होगा उन पर अत्याचार।। जाने कितने ही आँचल जबरन हुए होंगे  इस जग में दागदार।। जाने कितने ही बुजुर्गों को घर की बजाय वृद्धाश्रम पर करना पड़ा होगा एतबार।। इन्तहां हो गई होगी हदों की, टूटी होंगी जाने कितनी ही आस। अब तो होने लगा है पूरा अहसास, यूँ ही तो नहीं आया ये जलजला जाने अगणित ही होंगे सृष्टि में आह भरे अहसास।। जाने कितने ही अरमानों की कबरें हुई होंगी तैयार।। जानें कितनी ही बेबसियां हुई होंगी लाचार।। स्नेहप्रेमचन्द

नारी मन thought by sneh premchand

नारी तन के भूगोल को जानने की बजाय नारी मनोविज्ञान को समझना ज़्यादा ज़रूरी है।दूसरे शब्दों में, उसकी बायोलॉजी जानो या न जानो,कतई ज़रूरी नहीं और उससे कैमेस्ट्री बिठाने के लिए भी उसके इतिहास को जानना ज़रूरी नहीं, मनोविज्ञान को जानना ज़रूरी है।उसे किसी प्रकार की पोलिटिकल साइंस में कोई रुचि नहीं होती,उसके हिवड़े के संगीत को सुनकर तो देखो,कुदरत की इस नायाब रचना से मधुर कोई सुर,नगमा,ताल न लगेगी।कभी घर में, कभी कार्यक्षेत्र में,कभी रिश्ते नातों में विविध किरदार निभाते हुए उसके नर्तन की कदम ताल में किसी तबले की थाप के अनहद नाद की अनुभूति तो करके देखो. उसके क्रियाकलापों का गणित लगाने की बजाय उसके ह्रदय की स्वरलहरियां सुनना ज़्यादा ज़रूरी है,उसके तन की बजाय मन के गलियारों में विचरण करना गांधारी की आंखों पर बंधी पट्टी खोलने जैसा होगा ।। विज्ञान की तरह किसी परिकल्पना को नारी के सन्दर्भ में सिद्ध करने का कोई औचित्य नहीं,हिंदी की कविता की तरह उसे बहने दो,उसके मन की सरहदों पर मात्र प्रेम का पुल ही बन सकता है,जबरन बनाया गया किसी भी प्रकार के प्रतिबंधों का पुल तो सागर पर बांध बनाने