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एक कमरा उसका भी हो(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*एक कमरा उसका भी हो, है वो भी इसी अंगना की कली प्यारी* *यहीं फला फूला था बचपन उसका, अब कैसे मान लिया उसे न्यारी* नए रिश्तों से जुड़कर उसके जीवन के  अध्याय बदल जाते हैं, बहुत कुछ छिपा दिल के भीतर, लब उसके   मुस्कुराते है।। हर गम हर खुशी में होती है पूरी उसकी भागीदारी, बीता समय तो कैसे मान लिया उसे न्यारी।। *अम्मा बाबुल के सपनो ने जब ली प्रेमभरी अँगड़ाई थी तब ही तो लाडो बिटिया इस दुनिया मे आयी थी* *एक ही चमन के कली पुष्प तो, होते हैं सगे बहन भाई फिर सब कुछ बेटों को सौंप मात पिता ने, मानो अपनी ज़िम्मेदारी निभाई* मिले न गर ससुराल भला उसे, हो जाएगी न वो दुखियारी, एक कमरा तो उसका भी बनता है, है मात पिता की वो हितकारी।। कभी न भूले कोई कभी भी, थी वो भी इसी अंगना की कली प्यारी।। हर आहट पर मात पिता की, रानी बिटिया दौड़ कर आती है, कभी कुछ नही कहती मन का लाडो, बस चैन मात पिता के आंचल में पाती है।। एक दिन चुपचाप विदा होकर, वो अंगना किसी और का ही सजाती है। माना हो जाती है गृहस्वामिनी और पूरे घर पर उसका ही आधिपत्य होता है, पर पीहर से क्यों उखड़े जड़ उसकी पूरी ही, ये मलाल हर बेटी के दिल मे होता