Skip to main content

Posts

Showing posts with the label पता ही नहीं चला

हौले हौले बीते 29 साल

सपने बुनते बुनते कब लम्हे उधड़ते गए(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*सपने बुनते बुनते कब  लम्हे उधड़ते गए*          ** पता ही नहीं चला** *जिंदगी के सफर में हमसफर संग चलते चलते कब बीत गए 25 साल*           **पता ही नहीं चला** *दो जिस्म कब एक जान बन गए*             **पता ही नहीं चला** *संग संग रहते कब पल पल संग रहने की आदत सी ही हो गई*              **पता ही नहीं चला** *कब रंगरेज बन एक दूजे के रंग में रंग गए*             ** पता ही नहीं चला** *ख्वाब बन गए कब हकीकत**             **पता ही नहीं चला** **कब प्रेम की करुणा से हो गई सगाई**             **पता ही नहीं चला** **कब अनजान डगर के  दो मुसाफिर सात जन्मों के बंधन में बंध गए**।                **पता ही नहीं चला** **कब मौन की भाषा समझ आने लगी** **कब चेहरे और नयन पढ़ने आ गए**        **सच में पता ही नहीं चला** **कब धड़कन धड़कन संग बतियाने लगी**            **पता ही नहीं चला**  **कब बिन कहे एक दूजे की जरूरतें समझ आने लगी**             **पता ही नहीं चला**

सपने बुनते बुनते(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

सपने बुनते बुनते  कब लम्हे उधडते गए,  पता ही नहीं चला।। पल कब तबदील हुए  अर्धशतक में, पता ही नहीं चला।। कब जिंदगी अनुभवों की पाठशाला बन गई,  पता ही नहीं चला।। कब रिश्तों के ताने बाने सुलझाते सुलझाते खुद ही इनमे उलझती चली गई,  पता ही नहीं चला।। जिंदगी के सफर में संग हमसफर के  कब बीत गए बरस 25, पता ही नहीं चला।। कब छोटी छोटी सिया सरू बड़ी हो गई,पता ही नहीं चला कब छोड़ आंगन रोहिल्लास का रावलस की केंद्र बिंदु बन गई,पता ही नहीं चला कब मित्रों के इत्र से महकने लगा चरित्र तेरा पता ही नहीं चला कब अधिकार बदल गए जिम्मेदारी में,अच्छे से पता चला।। कब सपने बुनते बुनते लम्हे उधड़ते गए, पता ही नहीं चला।।

दिन बीत गए

परछाई सी

कब बड़ी हो गई

कब बीत गए दस साल((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

पता ही नही चला, और बीत भी गए दस साल। पापा हमसे बिछड़े हुए, सुनाएं किसको अब हाल??? एक सहजता  का आंगन  बाबुल का कहलाता है। बच्चों की मुस्कान हेतु, वो उनकी हर परेशानी सहलाता है।। कहता नहीं है कुछ, बस करता चला जाता है।। अपने कंधों पर पूरे परिवार का बोझ बखूबी उठाता है।। नही जगह ले सकता कोई मात पिता की, ईश्वर उनकी रूह को एक नए साबुन से ही नहलाता है। फिर भेज देता है पास हमारे, वो जन्मदाता पिता कहलाता है।। बरगद की घनी छाया है पिता, सबसे घना सुरक्षा साया है पिता, सहजता का पर्याय है पिता, अपनत्व के मंडप में प्रेमअनुष्ठान है पिता, हर समस्या का समाधान,, हर सवाल का जवाब है पिता, माँ की तरह उसे प्रेम का करना नही आता इज़हार। ऊपर से कठोर, भीतर से नरम, वाह रे पिता का अदभुत प्यार।। *मैं हूँ न* कहने वाला होता है पिता, सबसे अच्छी जीवन मे राय है पिता पिता है तो हक पूरे अधिकार से मुस्कुराता है। जीवन की इस घणी धूप में, पिता शीतल सा छाता है।। जीवन के इस अग्निपथ को, पिता सहजपथ बनाता है।। जीवन के तंदूर में तपता है खुद लेकिन, हमे रोटी ज़रूर मुहैया करवाता है।। सच में पिता तो है एक सुरक्षा चक्र बेमिसाल।

देखते देखते((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

कब बीत गया वक्त

छोटा सा मिठू

अरदास thought by sneh premchand

पता ही नही चला, और बीत भी गए नौ साल, पापा हमसे बिछड़े हुए, सुनाएं किसको अब हाल??? एक सहजता  का आंगन  बाबुल का कहलाता है। बच्चों की मुस्कान हेतु, वो उनकी हर परेशानी सहलाता है।। नही जगह ले सकता  कोई मात पिता की, ईश्वर उनकी रूह को,  एक नए साबुन से ही नहलाता है। फिर भेज देता है पास हमारे, वो जन्मदाता पिता कहलाता है।। बरगद की घनी छाया है पिता, सबसे घना सुरक्षा साया है पिता, सहजता का पर्याय है पिता, अपनत्व के मंडप में  प्रेमअनुष्ठान है पिता, हर समस्या का समाधान, हर सवाल का जवाब है पिता, माँ की तरह उसे प्रेम का करना नही आता इज़हार, ऊपर से कठोर, भीतर से नरम,वाह रे पिता का अदभुत प्यार।। मैं हूँ न कहने वाला होता है पिता, सबसे अच्छी जीवन मे राय है पिता, पता ही न चला,कब बीत गए नौसाल, कोई नही पूछता अब क्या है हमारे दिल का हाल। करबद्ध हम कर रहे परमपिता से यह अरदास, मिले शांति उनकी दिवंगत आत्मा को,है प्रार्थना ही हमारा प्रयास।। सबकी इस जहां में हैं गिनती की ही शवास, जितना तेल दीये में होता,उतना ही जीवन प्रकाश।।। वो बाजरे की खिचड़ी,वो लहुसन की चटनी, वो मिस्सी रोटी की सौंधी सौंधी महक वो सरसों