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*अहिंसा परमो धर्म हमारा*(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*विध्वंस सरल है,कठिन है सृजन* नहीं आया समझ,ये हमे हर बार।। जो जीवन हम नहीं दे सकते, लेने के भी नहीं, हम हकदार।। मानव बन जाता है दानव,  कर लेता है पोषित, चित में विकार।। युद्ध का भयंकर सा  बजा बिगुल वो, कर देता है सर्वत्र हाहाकार। वो जीत भी क्या जीत है????? मानवता जिसमे जाती है हार।। रक्त की बह जाती हैं नदियां, मर जाते हैं निर्दोष, बेकसूरवार।।  मिलती हैं जो युद्ध से सौगातें, आओ दोहराते हैं क्रमवार। सूनी गोदें,उजड़ी मांगें, विलाप,क्रंदन,चीख पुकार। हिंसा का होता है तांडव, विनाश पांव लेता है पसार।। कहां सो जाती है संवेदना???? और क्रूरता भरती है हुंकार।। बहुत छोटी है जिंदगी पर बहुत बड़े बड़े हैं अहंकार।। *जिसकी लाठी भैंस उसी की* नहीं विकास की ये सच्ची परिभाषा। सबल हाथ थाम ले निर्बल का, यही सबल से निर्बल को होती आशा।। तोड़ो ना आशा,फैलाओ ना निराशा सबको चैन से जीने का है अधिकार।।   पनपे भाव वसुधैव कुटुंबकम का, ना आए बीच नफरत की दीवार।। अहम बड़े और जिंदगी छोटी, शिक्षा तो है, पर बिन संस्कार।। *विध्वंस सरल है,कठिन है सृजन* आया नहीं समझ ये हमे हर बार।। बहुत हुई ये लीला विनाश की अब आत्ममंथन की चले