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रंगे धरा गगन,मन हुआ मगन(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

रंगे धरा गगन, मन हुआ मगन,  जब आया होली का त्योहार।  हुआ स्पंदन चेतना में ऐसे,  खिले सुंदर मोहक से कचनार।। मस्ती, उल्लास,सामाजिक समरसता से भरा हुआ यह प्यारा त्यौहार।  आओ इस बार होलिका दहन में जला दें,मन के समस्त विकार।।   लोभ, मोह ईर्ष्या क्लेश क्रोध अहंकार। कोई भी विकार ना पनपे चित में,  हो हिवडे में बस प्यार ही प्यार।। *कोई राग ना हो,कोई द्वेष ना हो* *कोई कष्ट ना हो कोई क्लेश ना हो* *मन मलिन ना हों,राहें जटिल ना हों* *कोई क्षोभ ना हो,प्रतिशोध ना हो* *कोई दीन ना हो,कोई हीन ना हो* *कोई अभाव ना हो,बुरा स्वभाव ना हो* *कोई ग्लानि ना हो,कोई हानि ना हो* *कोई शंका ना हो,बुरी मंशा ना हो* *कोई कर्ज ना हो,कोई मर्ज ना हो* *कोई चबका ना हो,कोई टीस ना हो* *कोई मलाल ना हों,बुरे हाल ना हों* *कोई गिला ना हो,कोई शिकवा ना हो, *कोई उपेक्षा ना हो,कोई अपेक्षा न हों* *कोई दर्द ना हों,नाते सर्द ना हों* *कोई भेद ना हो,कोई भाव ना हो* ऐसा जब हो जाएगा, समझो आ गया होली का त्योहार। सौ बात की एक बात है, प्रेम ही इस पर्व का आधार।। सौहार्द के रंग,अपनत्व की पिचकारी, गुलाल उल्लास का,गुब्बारे मस्ती के, दहन विकारों का,शमन