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बोझ नहीं अधिकार है कोथली(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*हक उसका भी बनता है, बेशक वो करती है इनकार* *दौलत और जागीर नहीं पर कोथली पर तो हो अधिकार* *एक ही अँगने में खेल कूद कर  बड़े होते हैं बहन भाई* *जाने कितने अनुभव अहसासों से करते हैं वे प्रेमसगाई* *गुड़ियों से खेलने वाली लाडो  जाने कब बड़ी हो जाती है* *माँ बाबुल के हिवड़े में लगा कर स्नेहपौध, वो चुपके से विदा हो जाती है* *माँजाया भी एक कोने में  हौले से नीर बहाता है* *ले जाते हैं पालकी बहना की  जब चार कहार, भीतर से टूट सा जाता है* *समय संग सब हो जाता है सामान्य, अक्सर ज़िक्र लाडो का कर जाता है खुशगवार* *कोठी और जागीर नही, पर कोथली पर तो हो इसका अधिकार* *कोथली सिर्फ कोथली नही, एक परवाह है,स्नेह है,अनुराग और जुड़ाव है* * कोथली सौहार्द की वो खेती है जिस पर सिर्फ और सिर्फ मधुर एहसासों के पुष्प खिलते हैं* *जीवन में कितने ही नए रिश्ते जुड़ जाएं,पर मात पिता और भाई बहन के नातों में कभी दूरी नहीं आती* *बेशक मुलाकात थोड़ी कम हो जाएं, पर संवाद और संबंध में गहराई दिनों दिन बढ़ जाती* *इन्हीं प्रेम भावों की गंगोत्री से, कोथली की गंगा,गंगासागर तक जाती* *कोथली अपनत्व की हांडी में स्नेह का साग है,* *कोथली अनुर