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परिंदे

पर निकलते ही परिंदे आसमां के हो गए, भूल गए पालनहारों को, एक नई दुनिया में खो गए।। माना ज़िन्दगी के रंग अनोखे, ये अपनी तरफ लुभाते हैं। पर अपनी प्राथमिकताओं को क्यों, हम इतनी आसानी से भुलाते हैं??? ज़िंदगी की भूलभुलैया में, भूल अपनों को ही, हम सब ऐसे कैसे सो गए? कुछ ज़िमम्मेदारियाँ हैं हमारी भी उनके लिए, ये क्यों और कैसे हम ऐसे हो गए??? पर निकलते ही परिंदे आसमां के हो गए। धरा पर जन्म दिया था जिस माँ ने हमको, संवेदनहीन से उसके लिए हम हो गए।। खो गए अपनी ही छोटी सी परिधि में, पत्ते भूल जड़ों को बस बेलों के हो गए। पर निकलते ही परिंदे----–--------------।। भूल गए उस महान वृक्ष को हम, जिसका कभी हम छोटा सा हिस्सा थे। हो गई सीमित और छोटी सी दुनिया हमारी, माँ बाप तो अब भूला हुआ सा एक किस्सा थे।।उऋण नहीं हो सकते कभी मात पिता के ऋण से, ये इतने उदासीन से कैसे हम हो गए???? पर निकलते ही परिंदे-–-------------------।। ये वही बागबां तो हैं जो किल कारी से तुम्हारी कितना खुश हो जाते थे, देख तुम्हारी मोहिनी सूरत ,वे अपनी थकान मिटाते थे।। अब देख कर भी अनदेखा करते हो तुम उनको, कौन से हैं वे नयनाभिराम दृश्य,जो तुम्