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युग जैसे बीते हैं मां जाई तुझ बिन ये दो साल

युग जैसे बीते हैं मां जाई! तुझ बिन लंबे ये दो साल लम्हा लम्हा बीत गए बेशक,  जाने हम ही हमारा हाल सीने में है एक खलबली जेहन में रहता है एक मलाल ऐसे कैसे चली गई तूं?? उठता रहता है एक सवाल *हानि धरा की लाभ गगन का* नहीं मिलता कोई तुझ सा पुर्सान ए हाल अभाव का प्रभाव ही बताता है कोई जीवन में कितना होता है खास यूं तो चलने को चल रही है जिंदगी, थी तूं जैसे तन में श्वास *एक ठंडी हवा का झोंका सी तूं तपते सहरा में आई थी* *आजमाइश तुझे आजमाती रही, फिर भी तूं मुस्काई थी* *उम्र छोटी पर कर्म बड़े, तन संग जैसे परछाई थी* *खुद मझधार में होकर भी साहिल का पता बताती थी* बोल मेरी मां जाई!प्यारी इतनी हिम्मत कहां से लाती थी?? *कर्म से मानी ना हार कभी, कर्म की नाव में चप्पू हौंसले के  चलाती थी* *मीठी बोली मधुर व्यवहार*  से सबको अपना बनाती थी *आज भी मधुर मधुर सी यादें तेरी,सीने में रखी हैं पाल* *युग जैसे बीते हैं मां जाई! तुझ बिन लंबे ये दो साल* *सोच कर बोला सदा* न गिला न शिकवा न शिकायत कोई, *सच तेरा वजूद था बड़ा कमाल* *बेगानों को भी बना लेती थी अपना, *कुशल प्रबंधन,अदभुत मिसाल* *प्रेरणा पुंज* कहूं तुझ