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वो बचपन कितना प्यारा था(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

वो बचपन कितना प्यारा था जहाँ लड़ते ,झगड़ते, फिर एक हो जाते वो सच में कितना न्यारा था हसरतें भले ही हैसियत से नजरें नहीं मिलाती थी हर छोटी सी उपलब्धि पर मां कितना खुश हो जाती थी जब कुछ भी उलझन होती थी तब माँ की होती गोदी थी पिता का सर पर साया था न लगता कोई  पराया था संवाद अगर सुस्ताता था कोई आ कर झट से मनाता था संबध फिर हौले हौले अपने अंदाज में मुस्कुराता था औपचारिकता की बड़ी बड़ी सी चिन ली सबने दीवारें हैं पार भी देखना चाहें अगर हम बेगानी सी मीनारें है तब तेरा मेरा न होता था सब का सब कुछ होता था जहान हमारा सारे का सारा था वो बचपन कितना प्यारा था माँ इंतज़ार करती थी वो सब से बड़ा सहारा था बाबुल के अंगना में चिड़िया का बसेरा बड़ा दुलारा था वो बचपन कितना प्यारा था, नही बोलता था जब कोई अपना, चित्त में हलचल हो जाती थी, खामोशी करने लग जाती रही कोलाहल भीड़ में भी तन्हाई तरनुम बजाती थी, किसी न किसी छोटे से बहाने से मिलन की आवाज़ आ जाती थी, अहम बड़े छोटे होते थे, सहजता लंबी पींग बढ़ाती थी, सबने मिलजुल कर बचपन अपना निखारा था,वो बचपन कितना प्यारा था।। अपनत्व के तरकश से सब प्रेम के तीर चलाते थे, रूठ जाता था ग