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Showing posts from July, 2021

बहुत कुछ कह जाते हैं नयन

मित्र बिना भी क्या जीवन है

मित्र तो वो इत्र है((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

कुछ कर दर गुजर,कुछ कर दर किनार

काश कोई ऐसी भी सुईं होती((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

न रहे कोई वृद्धाश्रम जहान में

खुल जाएं जो मन के सारे द्वार

क्या कहना चाहते हैं रसखान???((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

क्या चाहते हैं रसखान? लाठी,कम्बल गर मिल जाये मोहन की, तीनों लोकों का त्याग देंगे राज। मिल जाएं जो नंद बाबा की गइयाँ चरावन को, आठ सिद्धियों और नौ निधियों का क्या काज। मिल जाएं जो ब्रज के वन,बगीचे और तड़ाग करोड़ों सोने के महल न्योछावर, करील के कुंजों  देखने के लिए मन रसखान का रहा भाग।।

जब जिंदगी का परिचय हो रहा था अनुभूतियों से((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

जरा याद करो कुर्बानी ((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

शहीद ऊधम सिंह((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

बेचैनी और सुकून((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

बेचैनी और सुकून एक दिन बेचैनी ने कहा सुकून से हो शांत से गहरे सागर तुम, थाह तुम्हारी किसी ने न पाई। मैं नदिया के भँवर के जैसी चंचल कोई शांत,सीधी, उलझी सी राह न दी मुझे कभी दिखाई। कहा सुकून ने बेचैनी से, होता है जहाँ मोह,काम,क्रोध और भौतिक सुखों को पाने की तीव्र लालसाएँ। तुम दौड़ी सी आ जाती हो वहाँ पर, ठहराव नही तुझ में, नहीं दिखाई देती तुम्हे राहें।। नही ज़रूरी मैं रहूं महलों में, मुझे तो फुटपाथ भी आ जाते हैं रास। पर तुम तो कहीं भी नही टिक पाती, पूरे ब्रह्मांड में तुम्हारा नही है वास।। जिस दिन तुम्हे जीवन की सही सोच   समझ मे आएगी। विलय हो जाओगी तुम उस दिन मुझमे, बेचैनी सुकून बन जाएगी।।

सही कहते हैं

people may be unkind

उलझनें

मां ममता का सागर((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

मां पर जब भी लिखने लगती है  ये लेखनी, चलती रहती है सतत,अविलंब  और अविराम।। संभव है सागर की नापना गहराई। पर मां के प्रेम की थाह तो,  आज तलक न किसी ने पाई।। औलाद कैसी भी हो,  मां तो प्रेम करती है निष्काम। कभी नहीं रुकती,कभी नहीं थकती,कैसे करती है कर्म अविराम।। हर भाव के लिए शायद  बन ही नहीं पाए अल्फाज। वरना आज बता देती,  मां की ममता का, सब को राज।। अल्फाजों की भी एक सीमा है,बेशक भावों की कोई सरहद,हो, न हो। फिर इन भावों को कैसे पहुंचाएं एक दूजे तक,हम जो कहें,हो सकता है दूजे के पास उसे समझने के अहसास हों, न हों।। हम भाव लिखते हैं, वे शब्द पढ़ते हैं, उन भावों को देखने का चश्मा उनके पास हो, न हो।। अधिक तो नहीं आता कहना, मां कुदरत का सबसे अनमोल वरदान। मां न होती तो सच में इतना सुंदर होता ही नहीं ये विहंगम जहान।। एक परिवर्तन तो निश्चित ही, अब सोच में आया है। बहनों में नजर आता अब  मां का साया है।। मात पिता के बाद बहन के नाते को, मैने तो सबसे अनमोल सा पाया है। न गिला, न शिकवा, न शिकायत कोई, धन्य हूं मैं,एक नहीं तीन बहनों को पाया है।। जब प्रेम से रहते हैं बच्चे फर्श पर, अर्श में मां हर्षि

ऐसा क्यों????विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा

सांसों की सांस में

आज जन्मदिन है जिनका

सांझ ढले(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

परिचय केशव का(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

अपना परिचय देते हुए केशव के प्रकट हुए कुछ यूँ उदगार। मैं ही सुख हूँ,मैें ही दुःख हूँ, हूँ मै ही साकार और निराकार।। पाण्डवोंकी जीत मैं हूँ, हूं मैं ही तो कौरवों की हार। पितामह के बाणो की  शय्या मैं हूँ, हूँ मैं ही सृजन और संहार।। द्रौपदी का लुटता आँचल हूँ मैं,  हूँ मैं ही गांधारी की ममता की हार।। अर्जुन का धनुष हूँ मैं,  हूँ  मैं ही एकलव्य के अन्याय का सार। मैं दुर्योधन की  घायल जांघ हूँ, हूँ मैं दुशासन की फटी छाती की पुकार। धरा भी मैं हूँ,गगन भी मैं हूँ, हूँ मैं ही अधर्म पर धर्म की जीत का हार।। मैं ही धरा, मैं ही अंबर, मैं ही हूं कायनात ये सारी। मैं आदि हूं, मैं हूं अनंता, मैं ही शोला, मैं ही चिंगारी।।        स्नेह प्रेमचंद

सीता तो हो सकती है((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

सीता तो हो सकती है,मगर बुद्ध नहीं बन सकती है नारी। पग पग पर देनी पड़ सकती है अग्नि परीक्षा,परीक्षक हो जाती है कायनात ये सारी।। बच्चे और पति को सोया छोड़ नहीं जा सकती वो, दोनो ही उसकी जिम्मेदारी। सत्य की खोज में भी जाने की उसकी कभी नहीं आ सकती बारी। सीता तो बन सकती है, पर बुद्ध नहीं बन सकती नारी।। जाएगी तो मिलेगी भगोड़ी की संज्ञा, बुद्ध की भांति भगवान की संज्ञा से नहीं नवाजी जाएगी। उसके पास तो विकल्प ही नहीं हैं, वो कैसे किसी वृक्ष तले तप कर पाएगी??? सो जाते हैं अधिकार उसके लिए, बस जागृत रहती है ज़िम्मेदारी।। सीता तो बन सकती है, पर बुद्ध नहीं बन सकती नारी।। औरों की खुशी में ही खोजनी पड़ती है उसे खुशी अपनी, बेशक अपनी खुशी पड़ी रहती है, जैसे राख के ढेर में कोई  सुलगती चिंगारी। सीता तो बन सकती है, पर बुद्ध नहीं बन सकती नारी।। सीता ने तो संग राम के, किया चौदह वर्षों का बनवास। बनवास राम को मिला था, सीता को नहीं, फिर भी बिन राम के महलों में रहना उसे आया नहीं रास।। सच्चा साथ निभाया उसने,  सोचो कितनी पतिव्रता थी वो नारी। बुद्ध तो सोती छोड़ यशोधरा को चले गए वन को, रोक सकी ना वो बेचारी।।

न कोई था,n कोई होगा

हटे तमस((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

मां कितनी खुश हो जाती थी((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

बीते पल और बना इतिहास

एटीएम या आधार कार्ड

मां से बढ़ कर

प्रेम की ताकत

नहीं चाहिए(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

नही चाहिए मुझे सोनाचाँदी,  ना ही है कोई अपने हिस्से की अभिलाषा। रखना ध्यान तुम माँ बाप का भाई, है हर बहन की यही भाई से आशा।। कुछ लेने नही आती हैं पीहर बहने, वो बस बचपन के कुछ पल चुराने आती है,देखना चाहती हैं सुकून और शांति  माँ बाप के मुखमंडल पर,वो तो घर को रोशन कर जाती हैं,,,,,,,,,हर बहिन की अभिलाषा

यूं ही तो नहीं

लम्हा लम्हा(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

जब भी परदेस में बरसे बादल

स्नेह सुमन सा महके तेरा जीवन((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

दिल मां बाप का

हौले हौले((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

पल,पहर,दिन,महीने साल बीत कर,एक दिन ये आ ही जाता है। कार्यक्षेत्र में कार्यकाल हो जाता है पूरा,समय अपना डंका बखूबी बजाता है।। हौले हौले अनेक अनुभव अपनी आगोश में समेटे,बरस 60 का इंसा हो जाता है, हो सेवा निवर्त कार्यक्षेत्र से,कदम अगली डगर पर वो फिर बढ़ाता है।। पल,पहर,दिन,महीने-------------आ ही जाता है।। ज़िन्दगी की आपाधापी में कई बार कोई शौक धरा रह जाता है, जीवनपथ हो जाता है अग्निपथ,ज़िम्मेदारियों में खुद को फंसा हुआ इंसा पाता है।। पर अब आयी है वो बेला, जब साथी हमारा खुशी से कार्यमुक्त हो कर अपने घर को जाता है, शेष बचे जीवन में, उत्तरदायित्व बेधड़क सहज भाव से निभाता है। पल,पहर,दिन,महीने,साल-------आ ही जाता है।। ज़िन्दगी का स्वर्णकाल माना हम कार्यक्षेत्र में बिता देते हैं, पर शेष बचा जीवन होता है हीरक काल,यह क्यों समझ नही लेते हैं।। सेवानिवर्त होने का तातपर्य कभी नही होता, क्रियाकलापों पर पूर्णविराम, किसी अभिनव पहल, या दबे शौक को बाहर आने का मिल सकता है काम।। यादों के झरोखों से जब झांकोगे,तो जाने कितने अनुभव अहसासों को पा जाओगे, कितनो को ही न जाने मिली ही न होगी अभिव्यक्ति, उन्हें इस दायरे में

मां बन कर((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

सुविचार,,,,,माँ बन कर माँ मैंने है जाना,कितना मुश्किल होता है दिल के अहसास छुपाना,क्या,कब,कैसे,किन हालातों में तूने हम सब के लिए कितना कुछ कर डाला,सोच सिरहन सी उठती है दिल में,किन जतनो से तूने हमे होगा पाला,ममता की कावड़ में तूने माँ  प्रेमजल से हमे तृप्त कर डाला,कर्म की सड़क पर मेहनत के पुल को तूने कितने संघर्षो की रेत से निर्मित किया होगा,ये माँ बन कर माँ मैंने है जाना,कितने अहसासों को तूने न दी होगी अभिव्यक्ति,ये माँ बन कर माँ मैंने है जाना

जरा सोचिए

इंसानी नाते((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

कोथली और सिंधारे(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

फिर आया कोथली और सिंधारों का मौसम, फिर बागों में,सावन के पड गए हैं झूले। फिर याद आए तीज़ों पर मां के बनाए वो पापड़ स्वाली, सच में, कुछ भी तो हम नहीं भूले।। देख वे घेवर के डिब्बे, वे आमों की पेटियां,खुशी से समाते नहीं थे फूले।। ये कोथली सिंधारे मात्र कोथली सिंधारे ही नहीं हैं, ये तो बहुत खास संदेसा है खुद में समेटे हुए। ये प्रेम की मधुर बांसुरी हैं, ये परवाह हैं,ये दस्तक हैं जिंदगी की चौखट पर अपनेपन की, जाने किन किन भावों को हृदय तल में उकेरे हुए।।  जब मायके की दहलीज को लांघ बिटिया साजन के घर जाती है। बाबुल सिर पर रखता है हाथ, आंख  खुद ही नम हो जाती है।। वो कांपते हाथों से जेब टटोल कर, जब बाबुल एक गुलाबी सा नोट थमाता है। तब गीला सा हो हो जाता है चित बिटिया का, मौन खुद ही बहुत कुछ कह जाता है।। वो बचपन में जिद्द करने वाली जब मना करती है पैसे लेने वो, बचपन उसका उससे जुदा हो जाता है।। वो गुलाबी नोट धीरे धीरे एक दिन कोथली बन जाता है। हर तीज पर लाडो रानी आ नहीं पाती  आंगन बाबुल के, फिर बाबुल घेवर और कपड़े इसी गुलाबी नोट से खरीद कर भिजवाता है।। लाडो के लिए बहुत नायाब होती है कोथली,उसे बहुत कुछ

सच्चे नेता

सावन भादों

पुल सफलता का

अग्रदूत

अलख ज्ञान की

ऊंचे सपने देखो

वे होते हैं सपने

किस माटी के

अलख ज्ञान की