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रंगे धरा गगन

रंगे धरा गगन(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*रंगे धरा गगन मन हुआ मगन जब आया होली का त्योहार* *चारु चितवन चहुं दिशा विराजे, झूमे मस्ती में  सारा संसार* *बरसाने की लठमार है होली नर नारी में होती ठिठोली* *नर करे जतन, रंगी जाए नारी मारे डंडा इस दिन सारी की सारी* हर्षोल्लास का बने समा फिर, आएं खुशियां हर घर द्वार।। *मन हुआ मगन, रंगे धरा गगन जब आया होली का त्योहार* *अल्हड़पन लेने लगा है अंगड़ाई* *निखर निखर सी जाती है तरुणाई* *खिले फूल टेसू के ऐसे, जैसे प्रकृति ने सुंदर सी हो  चादर बिछाई* *मादक मंजरियों पर भौंरों का नर्तन, नयनों में हो मादकता छाई* ऐसा बना समा अनोखा, जैसे बरसों बाद साजन ने दी हो  दस्तक घर के द्वार। *रंगे धरा गगन मन हुआ मग्न* जब आया होली का त्योहार।। फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन, पावन पर्व ये आता है। नीला,पीला, लाल,गुलाबी  हर रंग दिल को भाता है।। ऐसे लगता है रंगरेज कोई, जैसे चित को रंग जाता है।। *कहीं भांग ठंडाई, कहीं रंगों की चादर कहीं करे जलधारा  सोलह श्रृंगार** तन प्रफुल्लित , मन आह्लादित ऐसा होली का त्योहार।। रंगे धरा गगन, मन हुआ मगन झूमे मस्ती में सारा संसार।। *होलिका रूप में नष्ट हुई थी जग से आज बुराई*