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Showing posts from December, 2019

महफ़ूज़ रहे हर प्यारा बचपन

महफूज़ रहे हर प्यारा बचपन, मिले हर बचपन को अधिकार। लगे मोहर न बेबसी  बचपन को, मिले शिक्षा और मिलें संस्कार।। जाड़े की सर्द रातों में, मिष्ठुर बर्तनों की काली कालिमा, न नन्हे हाथों को पड़े छुड़ानी। हों किताबेंखेल खिलौने उन हाथों में, तांकि सफल हो सके हरेक जवानी।। न हो कोई अपराध,  न हो कोई भ्र्ष्टाचार। एक बात आए समझ जन जन को प्रेम ही हर रिश्ते का आधार।। बचपन ही भविष्य है जवानी का, यह सोच कदापि नहीं निराधार। हर बच्चा है विशेष स्वयं में, होता अथाह गुणों का भंडार।। बस भटकें न कदम,रहे न भरम सही समझ को मिल जाए आकार। आये सही तरह से करना लक्ष्य निर्धारित फले फूले खिले ये संसार।।             स्नेह प्रेमचन्द

कितना अच्छा होता

कहाँ गयी तहज़ीब ,क्यों सो गए संस्कार

कहाँ गई तहज़ीब,क्यों सो गए संस्कार?? ये पंखों को क्या परवाज़ मिली, हो गए सपने सारे ज़ार ज़ार।। क्या कमी रह गई परवरिश में हमारी,  किस सोच को हकीकत का मिला आकार?? अंकुश न लगा जब मनमानियों पर, संवेदनहीनता का होने लगा श्रृंगार।। बेबसी ने जब ली सिसकी, चहुँ दिशा में हो गया हाहाकार।। कहाँ खो गयी तहज़ीब,कहाँ सो गए संस्कार??? जो कुछ भी हम देते हैं जहाँ में, वही लौट कर एक दिन आता है, सीधा सा गणित है खुदा की खुदाई का, क्यों इंसा समझ नही पाता है? बीत जाता है वक़्त हौले हौले,  फिर पाछे वो पछताता है।। सोच,कर्म,परिणाम की सदा बहती है त्रिवेणी, इतिहास भी यही   दोहराता है।। ईश्वर का पर्याय हैं मात पिता, क्यों उन्हें प्रेम,सम्मान नही दे पाता है?? सही समय पर सही कर्मों की, हो बेहतर बजने लगे शहनाई। उत्सव न बदले मातम में, हो न जग में रुसवाई।। भोग विलास,मनमानी, अराजकता, क्या यही रह गया सोच का आधार? उपभोग ही तो नही करने आये है, हो सोच में परिष्कार।। कहाँ गई तहज़ीब,कहाँ सो गए संस्कार???          स्नेहप्रेमचन्द

मेहनत और आलस्य

मित्र

राम सखा सुग्रीव थे और शाम सखा थे सुदामा। धर्म,क्षेत्र,मज़हब,जात पात से ऊपर है दोस्ती, अपनत्वसंगीत में सौहार्द का सदा बजता है मधुर तराना।।  जाने किन पिछले संस्कारों से एक आत्मा का दूसरी आत्मा से जुड़ जाता है नाता, जाने कौन सी अनजानी सी कशिश को प्रेम अपने गले है लगाता।। मन की मन से बंध जाती है डोर। हर पहर सुहाना हो जाता है,   हो चाहे निशा,दोपहर या फिर उजली भोर।। साँझे साँझे से अहसास कर देते हैं सब इज़हार। कतरा कतरा सी  जिंदगी को होने लगता है खुद से प्यार।। वक़्त का कारवां गुजरता रहता है,मीठे पलों की सौंधी महक से सब खुशगवार। कल खेल में हम हों न हों,पर यादों के तो बजते रहेंगे तार।। दोस्ती प्रेम है,दोस्ती उल्लास है,दोस्ती जीने की चाह है,भूलभुलैया में अदभुत सी राह है।। बजा नाद दोस्ती का जिस चित में,हो जाता है वो प्रेम दीवाना, राम साख सुग्रीव थे और शाम सखा थे सुदामा।।          स्नेह प्रेमचन्द

सामग्री लेखनी की

एक नही दो

एक नही दो घरों को रोशन करती हैं बेटियाँ प्यारी एक सजाए बाबुल का अँगना,दूजे साजन की फुलवारी।। कोमल हैं कमज़ोर नहीं,यही समझना है बहुत ज़रूरी, बेटियाँ ही तो होती हैं,ताउम्र नही जो रखती दूरी।। फ़िज़ां में महकने वाली सौंधी सौंधी सी महक हैं बेटियाँ, जीवन को जीवंत बनाने वाली होती हैं बेटियाँ, उत्सव,उल्लास,आनन्द से घर द्वार महकाने वाली होती हैं बेटियाँ, जीवन की भोर,दोपहर,साँझ हर पहर में साथ निभाने वाली होती हैं बेटियाँ, सागर से भी गहरी,धरा सी शीतल,पवन सी हल्की,गिरी सी ऊँची होती हैं बेटियाँ, देवी नही,लक्ष्मी नही,बस बेटी को बेटी रहने दो, जो चाहे उसे अपने दिल से दिल की कहने दो, वो भी हैं अपने बाबुल के आंगन की चिरइया,उसे साजन घर भी यूँ ही चहकने दो, सहज,सुरक्षित,उन्मुक्त रहें वे,जैसी हैं वैसी ही रहने दो।।। वस्तु नही वे भी हैं व्यक्ति विशेष,उनके तन के भूगोल की बजाय मन के विज्ञान की सरिता बहने दो।।            स्नेह प्रेमचन्द

माँ अब वो आँचल नही मिलता

माँ अब वो आँचल नही मिलता, माँ अब वो तेरी ममता का पुष्प नही खिलता. जब गाती थी तूँ लोरी, मैं चुपके से आकर तेरे आँचल में सो जाता था. सिमट जाती थी सारी  चितचिंताएँ, मेरा जहांन तेरा आँचल बन जाता था।। माँ अब वो आँचल नही मिलता, जब मैं रो रो कर आंसुओं से तेरे, दुपट्टे को गीला कर देता था।। सुबड़ सुबड़ जब रोता था मैं, तूँ झट सीने से लगा लेती थी, जाने कितनी ही प्यार भरी बलियां पल भर में दे देती थी।। वो कितना पावन निर्मल आँचल था, वो तेरी सौंधी सौंधी महक से सरोबार था, माँ मेरे लिए  तो देवी का दरबार था।। माँ अब वो आँचल नहीं मिलता, तेरी ममता का पुष्प अब किसी चमन में नही खिलता।। खा पीकर जब नही धोता था हाथ मैं मेरे, मलिन हाथों को तेरी ओढ़नी से पोंछा करता था, तूँ ज़रा भी गुस्सा नही होती थी, राजा बेटा कह कर तुम उसे पीला पीला कर लेती थी, तनिक शिकन नही आती थी भाल तेरे मां,बस मेरी बलेंयाँ लेती थी, तूँ किस माटी की बनी थी माँ, जो कहता,झट से दे देती थी।। माँ अब वो आँचल नही मिलता, जब नाक निकलती थी मेरी, तब पल्लू तेरा ही खोजा करता था, पल भर भी न सोचा करती तूँ, मैं मलिन से मलिन तर उसे करता था।। माँ अब वो आँचल नही मिल

माँ का रिश्ता सबसे न्यारा

सबसे न्यारा,सबसे प्यारा, माँ का रिश्ता सच्चा सहारा। आदिशक्ति,मर्यादा की मूरत रूप है माँ का कितना न्यारा।। बिन कहे ही मन की जाने, बच्चों की वो रूह पहचाने। माँ होती है सच्ची संस्कारक, पूरी दुनिया दिल से माने।। हम हँसे, वो हँस देती है, रोए तो रो देती है। बच्चों के कष्टों से अपनी, नयनों की कोर भिगोती है।। ऐसी ममता की मोहिनी सूरत, रूप है माँ का कितना प्यारा। माँ कुदरत की सर्वोत्तम कृति, पूरे जग ने है स्वीकारा।। धरा सा धीरज,उड़ान गगन सी, कर्मठता का थामे दामन। प्रभु रूप में मिली है हमको, सजता माँ से घर का आँगन।। बचपन को संभाले,जवानी को निखारे, बढ़ती उम्र में बन जाती हमराज। कौन से रूप का करूँ चित्रण मैं, पूरे विश्व की माँ होती है लाज।। भाग्यशाली हैं हम सब जो, सबने माँ को पाया है। अपनी अनुपम रचना को देख, आज ईश्वर भी मुस्काया है।। अपने अपने बीबी बच्चे, हम सब का संसार हैं। माँ के लिए तो लेकिन, हम आज भी एक परिवार हैं।। माँ ने क्या क्या किया होगा, यह तो लम्बी कहानी है। पर जागें अब तो बच्चे सारे, उन्हें ज़िम्मेदारी निभानी हैं।। माँ की समस्या ही हमारी समस्या, सांझे से अहसास हों। किसी  तरह का कोई भी गम,

यक्ष प्रश्न

क्या है माँ

व्यक्त्वि का अस्तित्व

हर उस व्यक्तित्व के अस्तित्व की एक रहती है जिज्ञासा, आए थे हरि भजन को,ओटन लगे कपास,क्या यही थी जीवन की परिभाषा???? मुख्य था वो गौण बन गया,गौण मुख्य की पगडंडी पर खोजने लगा राहें, लक्ष्यहीन सा चला पहिया जीवन का, वहीं चल दिए, जहाँ दिखी खुली बाहें।। वो जीवन भी क्या जीवन है,हो न जिसमे कोई अभिलाषा, भाग्य भी चाहता है बजे शंख कर्म का,कर्महीनता लाती है मात्र निराशा।। हर शिक्षा मस्तक पर अपने संस्कार का सिंदूर नही सजाती, जीवन मे हर राह सीधी हो,ज़रूरी तो नही,कई बार सरलता जीवन से सहजता है चुराती।। न निर्धारित पाठ्यक्रम है जीवन का कोई,न बुझती है सबकी ज्ञान पिपासा, सबके अहसास,इज़हार अलग हैं, कहीं जोश उल्लास कहीं घोर हताशा।। आए थे हरि भजन को,ओटन लगे कपास,क्या यही थी जीवन की परिभाषा???              स्नेह प्रेमचन्द

हमारे शांताक्लॉज़

मुझे तो बस लगता है इतना नानक जी हैं शांताक्लॉज़ हमारे। हर पेट को भोजन मिले, लंगर प्रथा चलाई हर गुरुद्वारे।। कितनी भी संगत क्यों न हो, कभी कोई भूखे पेट नही रहता। पंक्तिबद्ध एक सा सब को भोजन मिले, इसी ज़ज़्बे का झरना नित झर झर बहता।। अहंकार रहित हो कर करो सेवा, यही नानक बंदा सच्चे दिल से कहता। न दिखावा न कोई नाटकबाजी, ऐसे सारे गुरु के प्यारे।। मुझे तो बस इतना लगता है नानक जी हैं शांताक्लॉज़ हमारे।।

न कोई है,न कोई था,न कोई होगा

न कोई था,न कोई है,न कोई होगा माँ से बढ़ कर कभी महान। एक अक्षर के छोटे से शब्द में सिमटा हुआ है पूरा जहान।। धन चाहिए,न दौलत चाहिए, चाहिए औलाद के दो मीठे से बोल। मूर्ख प्राणी ही ममता को, दूजे रिश्तों से लेते हैं तोल।। फरिश्ता है माँ अनमोल,धरा पर, माँ बिन जीवन है वीरान। हर शब्द पड़ जाता है छोटा , जब माँ का करने लगो बखान।। अपनी कार्यशैली से माँ, संस्कारों की घुट्टी सहज पिला देती है। देती ही देती है वो ज़िन्दगी भर, औलाद से कुछ नही लेती है।। बहुत शक्ति है उसकी दुआओं में माँ होती है गुणों की खान। पत्थर भी पिंघल जाएं जिसकी ममता से, माँ का सम्भव नही बखान।। न कोई था,न कोई है,न कोई होगा, माँ से बढ़ कर कभी महान।। प्रेमकावड़ में जल भर आकंठ तृप्ति का, माँ सहज ही करा देती है अहसास। घर नही स्वर्ग होता है वो आशियाना, जहाँ पर माँ करती है वास।। माँ है जहां,ममता है वहाँ, माँ है जहाँ, पर्व उत्सव उल्लास है वहाँ, माँ है जहाँ, जीवन है वहाँ।। हर माँ सुंदर है जग में, सामर्थ्य से अधिक कर देती है कुर्बान। एक अक्षर के छोटे से शब्द में, सिमटा हुआ है पूरा जहान।। शनै शनै हमारे अस्तित्व को, माँ अपने व्यक्तित्व से ऐसे रंगती

काश बनी ही न होती

नहीं विकल्प जिनका कोई दूजा

नहीं विकल्प जिनका कोई दूजा, बंधु रे! मात पिता है उनका नाम, बस वक़्त बीते होता अहसास है, माँ बाप गुणों की अदभुत खान।। हर संज्ञा,सर्वनाम,विशेषण का बोध कराने वाले, ज़िन्दगी का परिचय अनिभूतियों से कराने वाले, हर  समस्या का है जिनके पास निदान, मानुष चोले में हैं वे ईश्वर का वरदान।। वक़्त बीते होता अहसास है, मा बाप गुणों की अदभुत खान।। रूठ भी जाते थे,तो वे झट से मना लेते, प्रेम,सहजता और सुरक्षा पल में दे देते, न अब मनाता है कोई,न देता कोई अब मुस्कान, ये कैसा सफर है ज़िन्दगी का, बिन समझे भी है चलने का प्रावधान।। माँ बाप गुणों को अदभुत खान।। चित चिंता को झट से भगा देते थे, सौ सौ बार बलियां ले लेते थे, हम हैं न,कह कर जीवनपथ कर देते थे आसान।। अपने होते न बनने दिया इसे अग्निपथ बिन कहे ही समझ जाते थे मनोविज्ञान, माँ बाप गुणों की अदभुत खान।। जब कभी उदासी ने दस्तक दी ज़िन्दगी की चौखट पर,खोल देते गांठ मन की संग मुस्कान, एक उनके होने से ही कितना सुंदर लगता था जहान।। माँ बाप गुणों की अदभुत खान।। मात पिता खुद बन कर होता है हमे अहसास, वे बिन कहे ही कितना कुछ कर गए, क्यों समय रहते नही आया समझ थे सच मे कितने खा

भोर भई,भानु आए

चलो मन अहम से वयम की ओर

सम्बन्धों की पालिसी

फिर हुआ घिराव अभिमन्यु का

फिर हुआ घिराव अभिमन्यु का फिर से धरा का सीना घायल है, फिर रचा गया है चक्रव्यूह जिसके लिए, जन जन उसका कायल है।। आवाज़ है जो सवा करोड़ की, जन जन का है जो आशा बिश्वास, जिसके नेतृत्व को विपक्ष भी मानता है,वो है, सच मे बहुत ही खास।। कुछ नही, बहुत कुछ कर गुजरने की आशा है जिसके चौड़े सीने में, कहता ही नही,लाता है जो दिन अच्छे, जिसे देख कर ऐसे पद पर आता है मज़ा सा जीने में।। फिर ऐसे वीर अभिमन्यु को कौरवों ने चहुँ दिशा से घेरा है, उस अभिमन्यु को नही आता था चक्रव्यूह से निकलना,पर इस अभिमन्यु ने अंधेरों में किया सवेरा है।। जनकल्याण ही सर्वोपरि है न कुछ तेरा है,न मेरा है, फिर हिंसा के निष्ठुर कदमों ने कोमल पर सशक्त अहिंसा को रौंदा है, फिर गुमराह हुए अज्ञानी आक्रोश जगह जगह पर कौंधा है।। फिर जाल फेंका गया उस अभिमन्यु पर, कथनी कर्म में जिसके भेद नहीं, अडिग सोच में जिसके कोई छेद नही, बड़े सपने,बुलन्द हौंसले,दूरगामी सोच कर्मठता हैं जिसके गहने, बेहतर हो, ये वो अभिमन्यु ही नहीं, तूँ,मैं, हम सब पहने।। इस अभिमन्यु को चक्रव्यूह से बड़ी बखूबी निकलना आता है, ज़रूरी नही इतिहास सदा ही ख़ुद को दोहराता है।। स

हटा तमस आए भानु

एक नही दो

मज़हब नही सिखाता

मज़हब नही सिखाता आपस मे बैर रखना आज नहीं, ये बचपन से सुनते आए हैं, पर क्या सही मायनों में हमने ये जुमले अपने जीवन मे अपनाए हैं???????? आए थे हरि भजन को,ओटन लगे कपास, मुख्य था जो गौण बन गया,गौण बन गया खास, आज की नही ये कहानी,दोहरा रहा है इतिहास, क्या करने आये थे,क्या कर रहे हैं हम, क्या आत्ममंथन के आयाम हमने जीवन में अपनाए हैं।। मज़हब नही सिखाता आपस मे बैर रखना, आज नही,ये बचपन से सुनते आए हैं।। अहम से वयम की ओर,  स्वार्थ से परमार्थ की ओर, स्व से सर्वे की ओर, हिंसा से अहिंसा की ओर हों सब उन्मुख, अंतरात्मा ने यही भाव  सदा चित चित में जगाए हैं।।         स्नेहप्रेमचन्द

कितना सुंदर नयनाभिराम

एक अक्षर के छोटे से शब्द में

हर शब्द पड़ जाता है छोटा, जब माँ का करने लगो बखान। एक अक्षर के छोटे से शब्द में सिमटा हुआ है पूरा जहान।। शिक्षा है माँ,संस्कार है माँ, रीत है माँ,रिवाज़ है माँ, जीवन रूपी वीणा का,  सबसे सुंदर साज़ है माँ।। अनुभूति है माँ,अहसास है माँ सच मे सबसे खास है माँ।। आस है माँ, विश्वास है माँ जीवन का सर्वोत्तम वरदान, हर शब्द पड़ जाता है छोटा जब माँ का करने लगो बखान।। बिन कहे ही मन की लेती है जान, माँ के हिवड़े का अदभुत विज्ञान, है माँ ही गीता,रामायण और कुरान।। आवाज़ से ही हरारत का पता चल जाता है माँ को, होता नही कोई रिश्ता माँ समान।। एक अक्षर के छोटे से शब्द में सिमटा हुआ है पूरा जहान।। माँ के चरण कमल ही होते हैं मंदिर, मस्जिद,तीर्थ, धाम।। जीते जी जिसने करली सेवा माँ की समझो उसको मिल गए राम।। हर सुख दुख की सच्ची साथी माँ, हमारे हर रंजोगम को अपना बनाती मां, एक मीठा सा अहसास है माँ आ जाये गर कोई परेशानी हर सम्भव प्रयास है माँ।। हमारे छोटे छोटे पंखों को मां  ही तो देती है उडान, ज़िन्दगी का अनुभूतियों से परिचय करवाने वाली माँ,  कुदरत का सर्वोच्च वरदान।। हर शब्द पड़ जाता है छोटा  जब मां का करने लगो बखान, हर

अंजनि के लाल

हर भूख को भोजन मिले

राम भगत हनुमान

प्रेम ज्योत

प्रेम ही सर्वोपरि है

मन ही हमारी सोच का दर्पण है

आहिस्ता आहिस्ता

आहिस्ता आहिस्ता चल ए ज़िन्दगी, कुछ हिसाब चुकाने बाकी हैं, आहिस्ता आहिस्ता चल ए ज़िन्दगी कुछ ख्वाब भुनाने बाकी हैं।। आहिस्ता आहिस्ता चल ए ज़िन्दगी कुछ रिश्तों में पैबंद लगाने बाकी हैं, कुछ सम्बन्धों से सलवटें हटाना बाकी है, कुछ हसरतों को मंज़िल तक पहुंचाना बाकी है, कुछ से क्षमा माँगना बाकी है कुछ को क्षमा देना भी बाकी है, आहिस्ता आहिस्ता चल ए ज़िन्दगी कुछ हिसाब चुकाने बाकी हैं।। कुछ शौकों को समझौतों में बदलना बाकी है, कुछ अनमोल सी यादों को अतीत के झोले से निकालना बाकी है,  मचलते अरमानों को ठहराव दिखाना बाकी है, कुछ बिखरे बिखरे से ज़ज़्बातों को समेटना बाकी है,  कुछ उदास लबों पर मुस्कान खिलाना बाकी है, कुछ शिक्षाओं को संस्कार का तिलक लगाना बाकी है, आहिस्ता आहिस्ता चल ए ज़िन्दगी दस्तूर ए रिवाज़ निभाना बाकी है, हम सबके लिए हैं,सब हमारे लिए हैं यह अहसास कराना बाकी है।। स्वार्थ से परमार्थ की बयार चलाना बाक़ी है एक दिन सब को जाना है खाली हाथ ही यह अहसास कराना बाकी है।। आहिस्ता आहिस्ता चल ए ज़िन्दगी कुछ हिसाब चुकाने बाकी हैं, कुछ ख्वाब भुनाने बाको हैं।।              स्नेह प्रेमचन्द

सुंदर चित

धीरे धीरे सफर ज़िन्दगी का

वो कैसे सब कर जाती थी

बेबसी अभी तो सोई है

स्वर्ग सी धरा

जैसे ही ढलती है शाम

हम से शुरू, हम पर ही खत्म

कान्हा से राधा का नाता

कंठ है कान्हा,तो आवाज़ हूँ मैं, गीत है कान्हा,तो साज़ हूँ मैं, रीत है कान्हा,तो रिवाज़ हूँ मैं, भाव है कान्हा,तो अल्फ़ाज़ हूँ मैं।। नयन हैं कान्हा,तो नूर हूँ मैं, हाला है कान्हा,तो सरूर हूँ मैं,  कंठ हैं कान्हा,तो आवाज़ हूँ मैं, पंख हैं कान्हा,तो परवाज़ हूँ मैं।। अधर हैं कान्हा,तो मुरली हूँ मैं, माँग हैं कान्हा,तो सिंदूर हूँ मैं, मीत हैं कान्हा,तो प्रीत हूँ मैं, संगीत हैं कान्हा,तो गीत हूँ मैं।। माखन हैं कान्हा, तो मधानी हूँ मैं, राजा है कान्हा,तो रानी हूँ मैं, ग्वाला है कान्हा,तो गैया हूँ मैं, ममता है कान्हा,तो मैया हूँ मैं।। मंज़िल हैं कान्हा,तो राह हूँ मैं, कशिश हैं कान्हा,तो चाह हूँ मैं, लक्ष्य हैं कान्हा,तो प्रयास हूँ मैं, कान्हा के लिए सच में खास हूँ मैं।। इमारत है कान्हा,तो आधार हूँ मैं, विश्वास है कान्हा,तो प्यार हूँ मैं, बिवेक है कान्हा,तो विचार हूँ मैं, धनुष हैं कान्हा,तो टनकार हूँ मैं।। इबादत हैं कान्हा,तो मस्ज़िद हूँ मैं, सरोवर है कान्हा,तो शीतल जल हूँ मैं, परिंदा हैं कान्हा,तो पंख हूँ मैं, परीक्षा है कान्हा,तो अंक हूँ मैं।। नदिया है कान्हा,तो बहाव हूँ मैं, समझौता हैं का

नही बनना

नहीं बनना मुझे राधा शाम की,जो रास तो संग मेरे रचाता हो, पर सिंदूर मांग में किसी और की, बड़े प्रेम से सजाता हो।। नहीं बनना मुझे सिया राम की,जो सर्वज्ञ होकर भी अग्निपरीक्षा करवाता हो, गर्भावस्था में भी अपनी अर्धांगिनी को,धोखे से वन भिजवाता हो।। नहीं बनना मुझे द्रौपदी पार्थ की,जो ब्याह तो संग मेरे रचाता हो, पर निज चार भ्राताओं संग,इस नाते के हिस्से करवाता हो।। नहीं बनना मुझे किसी गौतम की कोई अहिल्या, जो मुझे श्रापग्रस्त करवाता हो, छल से मुझे तो छला इंद्र ने,उद्धार हेतु मुझे युगों तक राम प्रतीक्षा करवाता हो।। नहीं बनना मुझे पांचाली धर्मराज की,जो जुए में मुझे दाव पर लगाता हो, व्यक्ति थी मैं वस्तु नहीं, मुझे भरी सभा मे केश खींच लाया दुशाशन, जो नारी अस्मिता को माटी में मिलाता हो।। नहीं बना मुझे पांडु रानी कुंती,जो निज सुत जन्म  छिपाती हो, समाज के झूठे डर से जो दोहरा जीवन अपनाती हो।। नहीं बनना मुझे लक्ष्मण की उर्मिला,जो मुझे विरह अग्नि में जलाता हो, बिन मेरी इच्छा जाने,निज भ्रात संग वनगमन की कसमें खाता हो।। नहीं बनना मुझे यशोदा गौतम की,जो माँ बेटे को सोया छोड़ भरी रात में,सत्य की खोज

दर्द उधारे ले

वे मात पिता कहलाते हैं

मुझे क्या बनना है

मैं मेरे बाबुल के आंगन की चिरइया मां की ममता का साया हूँ, भाई बहनों संग बीत जो प्यार बचपन उसकी ठंडी सी छाया हूँ। मैं जो हूँ, जैसी हूँ, वैसी ही मुझे रहने दो, बरसों से सिसक रहा है जो इतिहास आज तो खुल कर मन की कहने दो खुल कर मन की कहने दो, मुझे नही चाहिए देवी की संज्ञा मुझे मेरे जीवन जीने दो, फिर कोई द्रौपदी, निर्भया और प्रियंका सा इतिहास न बस दोहराने दो।।

नही बनना मुझे कोई देवदासी

नही बनना मुझे कोई देवदासी जहाँ।मेरा दामन कुचला जाता हो, जाने कितने ही अनकहे अहसासों को क्रूरता से मसला जाता हो, नही आते अब कोई माधव किसी पांचाली के लिए,जहाँ कोई बेबसी सिसकी का नाद सुनाता हो।।

नही बनना मुझे अम्बा अम्बालिका

नही बनना मुझे अम्बा अम्बालिका युगों युगों तक कोई प्रतिशोध अग्नि में जलाता हो नर नही पढ़ सका कभी नारी अंतर्मन तन के भूगोल में खो कर जाने क्या क्या उससे करवाता हो।।

नही बनना मुखे गांधारी धृतराष्ट्र की

नही बनना मुझे गांधारी धृतराष्ट की तो तन संग,मन नेत्र भी मूंदे जाता हो, नही लगाया अंकुश दुर्योधन की मनमानी पर हर उजियारा, तमस जो जीवन मे लाता हो।।

नही बनना मुझे शकुंतला किसी दुष्यंत की

नही बनना मुझे शकुंतला किसी दुष्यंत की, जो जंगल मे अकेले छोड़े जाता हो, भुला देता हो जो हर प्रेम कहानी, चाहे कोई कितना ही याद दिलाता हो।।

नही बनना मुझे यशोदा गौतम की

नही बनना मुझे यशोदा गौतम की, जो भरी रात में सोया छोड़ मां बेटे को, सत्य की खोज में जाता हो। पल भर भी नहो सोच हमारा तोड़ा झट से,चाहे कितना ही गहरा नाता हो।।

नही बनना मुझे लक्ष्मण की उर्मिला

नही बनना मुझे लक्ष्मण की उर्मिला जो मुझे विरह अग्नि में जलाता हो, बिन मेरी इच्छा जाने वो, भाई संग वनगमन जाने की कसमें खाता हो।।

नही बनना मुझे किसी गौतम की अहिल्या

नही बनना मुझे गौतम की कोई अहिल्या   जो मुझे श्रापग्रस्त करवाता हो, छल से तो मुझे छला इंद्र ने, उद्धार हेतु बरसों मुझे राम प्रतीक्षा करवाता हो।।

नही बनना मुझे पांचाली धर्मराज की

नहीं बनना मुझे पांचाली धर्मराज की जो जुए में मुझे दाव पर लगाता हो, भरी सभा मे केश खींच लाया दुशाशन नारी अस्मिता को माटी में मिलवाता हो।।

नही बनना मुझे सिया राम की

नहीं बनना मुझे सिया राम की, जो सर्वज्ञ होकर भी अग्निपरीक्षा करवाता हो, गर्भावस्था में भी अपनी अर्धांगिनी को धोखे से वन में भिजवाता हो।।

बचपन मे पल पल संग रहने वाले

माँ बाप की परिभाषा

नही मिलती जग में कोई मिसाल

सत्य की खोज अपने ही अंतःकरण से

हटे तिमिर हों उजियारे

अहसास भी वो, इज़हार भी वो

अहसास भी वो,इज़हार भी वो, कुदरत भी वो,किरदार भी वो, धरा भी वो,आकाश भी वो, परिवार भी वो,संसार भी वो, शिक्षा भी वो, संस्कार भी वो, रीत भी वो, रिवाज़ भी वो, पर्व भी वो,उल्लास भी वो, गीत भी वो, सरगम भी वो, दिल भी वो, धड़कन भी वो, सरलता भी वो,सहजता भी वो, सुझाव भी वो,समाधान भी वो, वो कोई और नहीं, वो माँ है बन्धु कुटुंब क़बीला भी वो,परिवार भी वो।।

विविधता में एकता

एक ही वृक्ष के हैं हम फल,फूल,पत्ते और हरी भरी शाखाएँ, विविधता है बेशक बाहरी स्वरूपों में हमारे,पर मन की एकता की मिलती हैं राहें।।

आज भी आई,कल भी आई

जैसे मीन का पानी से

वही मेरी माँ मिले

अधूरी आरज़ू

मित्र के इत्र से