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कोथली और सिंधारे(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

फिर आया कोथली और सिंधारों का मौसम, फिर बागों में,सावन के पड गए हैं झूले। फिर याद आए तीज़ों पर मां के बनाए वो पापड़ स्वाली, सच में, कुछ भी तो हम नहीं भूले।। देख वे घेवर के डिब्बे, वे आमों की पेटियां,खुशी से समाते नहीं थे फूले।। ये कोथली सिंधारे मात्र कोथली सिंधारे ही नहीं हैं, ये तो बहुत खास संदेसा है खुद में समेटे हुए। ये प्रेम की मधुर बांसुरी हैं, ये परवाह हैं,ये दस्तक हैं जिंदगी की चौखट पर अपनेपन की, जाने किन किन भावों को हृदय तल में उकेरे हुए।।  जब मायके की दहलीज को लांघ बिटिया साजन के घर जाती है। बाबुल सिर पर रखता है हाथ, आंख  खुद ही नम हो जाती है।। वो कांपते हाथों से जेब टटोल कर, जब बाबुल एक गुलाबी सा नोट थमाता है। तब गीला सा हो हो जाता है चित बिटिया का, मौन खुद ही बहुत कुछ कह जाता है।। वो बचपन में जिद्द करने वाली जब मना करती है पैसे लेने वो, बचपन उसका उससे जुदा हो जाता है।। वो गुलाबी नोट धीरे धीरे एक दिन कोथली बन जाता है। हर तीज पर लाडो रानी आ नहीं पाती  आंगन बाबुल के, फिर बाबुल घेवर और कपड़े इसी गुलाबी नोट से खरीद कर भिजवाता है।। लाडो के लिए बहुत नायाब होती है कोथली,उसे बहुत कुछ