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मैं द्वापर की द्रौपदी(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*मैं द्वापर की द्रौपदी* झांकती हूं  जब धरा पर, और देखती हूं   कलयुग में, हो जाती हूं  *स्तब्ध और परेशान* *वही सोच वही मानसिकता* नारी के लिए नहीं सुरक्षित आज भी ये विहंगम जहान।। नारी तन भूगोल के ज्ञाता हैं सब, नहीं आता समझ किसी को उसका मनोविज्ञान।। लम्हे गुजरे,युग बदले मगर कुछ भी  तो नहीं बदला *इंसान आज भी है  उतना ही हैवान* *वस्तु नहीं,व्यक्ति है नारी* क्यों नहीं समझा आज तलक शैतान?? जननी है वो तो पूरी सृष्टि की, मिले उसे तो  प्रेम,आदर और सम्मान सौ बात की एक बात है *नारी धरा पर ईश्वर का वरदान* *होती है जहां नारी की पूजा, देवता भी रमण वहां करते हैं* ऐसी बातों की ओर तो पल भर भी नहीं देता इंसा ध्यान। मैं द्वापर की द्रौपदी हो जाती हूं स्तब्ध और परेशान।। नित नित उल्लंघन हो रहा मर्यादा का, शील,संयम,शर्म,मर्यादा तो भारतीय संस्कृति की पहचान।। इतिहास दोहरा रहा है खुद को बार बार मृत्यु दंड का भी कम है इसके लिए प्रावधान।।  वक्त भी नहीं भुला पाता वे *स्याह से लम्हे*जब *दुष्ट दुशासन केश खींच मुझे भरी सभा में लाया था* *दुर्योधन ने अपनी जंघा पर मुझे बैठाने का  निर्लज्ज कथन दोहराया था*