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मां तो मां ही होती है(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

माँ वो उलझे रहते हैं  अपनी ही दुनिया में,       माँ को एक वस्तु बनाते हैं। आजीवन माँ करती है बच्चों का,      बच्चे चन्द दिनों में ही  घबरा जाते हैं।। *माँ का होना ही होता है,     एक सबसे सुखद  मीठा सा अहसास* *एक दिन ऐसा भी आता है,    माँ नही रहती जब हमारे पास* जब नही रहती माँ इस जग में,   तब क्यों वे झूठे आंसू बहाते हैं???? क्यों करते हैं जग दिखावा क्या सच्ची संतुष्टि पाते हैं??? जीते जी तो  समय और प्यार नही देते उसको,   तीये की बैठक में बैठ जग को जाने क्या दिखाते हैं??? *ना करते हैं आत्म मंथन, न आत्म बोध का दीया जलाते हैं*; *अधिकार तो सारे चाहिए उनको, जिम्मेदारियों से नजरें चुराते हैं* *वसीयत पर रहती हैं नजरें उनकी, बंटवारे के लिए दौड़े आते हैं* दर्द बांटना नहीं सीखते लेकिन, ये कैसे खून के नाते हैं??? आजीवन करती है माँ बच्चों का    बच्चे चन्द दिनों में ही घबरा जाते है। *एक मां कर देती है सारे बच्चों का, सारे बच्चे मिल कर भी एक मां का नहीं कर पाते हैं* *मां दूसरे कमरे में भी नहीं छोड़ती बच्चों को, बच्चे मां को मां के हाल पर छोड़े जाते हैं* आजीवन करती है मां बच्चों का, बच्चे