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यूं हीं तो नहीं

कुछ न कुछ सिखाती है प्रकृति(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

यूं हीं तू तो नहीं ये सावन भादो,  इतने गीले गीले से होते हैं। जाने कितने ही दुखी से दिल,  जैसे इन दिनों फूट फूट कर रोते हैं।। बहुत अच्छी लगती है मुझे ये बारिश, इसमें भीगते भीगते कितना भी रो लो,नहीं किसी को होता भान। बारिश संग बह जाते हैं अश्क भी, और बरकरार रह जाती है आन।। दर्द,प्रेम,खुशी,उल्लास हर भाव का प्रतिबिंब है ये बारिश, सब कुछ जैसे धुल सा जाता है, जैसे सिया को रावण से मुक्त कराने आ  गए हों राम।। कभी अचानक सी आ जाती है बारिश, फिर खिली खिली सी धूप आ जाती है। ये क्षणिक आवेग होते हैं दिल के, जो बरस कर फिर सहजता सी आती है।। कभी रिम झिम सी आती है बारिश जो बूंदा बांदी कहलाती हैl ये होते है प्रभाव उन अनुभूतियों के जो, कटाक्षों,अपेक्षाओं और अपमान के गलियारे से गुजरती हैं, और मन आहत कर जाती है।। आते हैं जब ओले धड़ाधड़, समझो, दुखी चित ने दुखों को चित से निकाला है। हो जाती है दुखों की भी उल्टी, पी हो, उसने जो दुखों की हाला है।। कभी कभी जब लग जाती है झड़ी सी, बरखा नहीं लेती रुकने का नाम। ये लंबे समय से आहत मन का प्रतिबिंब है, जैसे राधा से बिछड़ गए हों शाम।। जाने कितने

यूं हीं तो नहीं

गीले गीले

यूं ही तो नहीं

यूं ही तो नहीं

यूं ही तो नहीं

यूं ही तो नहीं( Thought by Sneh premchand)