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बांवरा मन(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

बांवरा मन पलक  झपकते ही जाने कहाँ कहाँ चला जाए, मन की गति पवन की गति से भी तेज है,बैरी मनवा इसे समझ न पाए।। सोचा जो भी मन ने,कर्म में बदला, कर्म परिणाम में हुए तबदील, मन को शिक्षित ही नही संस्कारित करना भी है ज़रूरी,संस्कार ही होता मन का वकील।। निषेध के प्रति सदा आकर्षित होता है मन, चाहता है करना सदा मनचाही, मन जब नही सुनता दिमाग की,आ जाती है बड़ी  तबाही।। मन के हारे हार है,मन के जीते जीत आज की नही,युगों युगों से  है ये चलती आयी रीत।। पुरानी यादों के भंवर में अक्सर, बांवरा मन खो जाता है, होता है जो परमप्रिय हमे, वो अक्सर याद आ जाता है।। संवेदना और संस्कार का टीका, मन के मस्तक पर लगाना है बहुत ज़रूरी, बहुधा दबानी पड़ती है इच्छाएँ मन की, वरना रिश्तों में आ जाती है दूरी।। बांवरा मन अक्सर सच का ही देता है साथ, मन की न सुन कर बन जाता है बनावटी सा  इंसा,मन को अक्सर थामना पड़ता है विवेक का हाथ।। सब को पता है, सब समझते हैं,फिर भी भूलभुलैया में मन उलझ उलझ सा जाए, समस्या का जब नही मिलता समाधान, अश्रु नयनों से नीर बहाए।।          स्नेहप्रेमचंद