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हाहाकार

अब तो रोक लो

वेद नहीं वेदना poem by sneh premchand

नफरत की दुनिया को छोड़ के, प्यार की दुनिया में खुश रहना मेरे यार। यहां तो सो गई करुणा,खो गई चेतना, सोच ने किया क्रूरता का श्रृंगार।। वेद पढ़े भी तो क्या पढ़े, गर पढ़ी न वेदना, घुट घुट,तड़फ तड़फ,ज़िन्दगी मौत से गई है हार। निर्ममता ने हदें पार कर दी सारी, फिर हुई कलंकित मानवता हुई फिर से  हो गई ये शर्मसार।। कौन है जानवर???? आज जेहन में बस एक यही कौंध रहा है सब कोके विचार।। कहां चली जाती है अंतरात्मा, क्यों दया के बन्द हो जाते हैं द्वार??? बेबस,निरीह,बेजुबानों पर जानवरों पर कब तक होता रहेगा अत्याचार।। प्रकृति से छेड़छाड़,बेजुबानों से बर्बरता, क्या सच में ही नहीं हैं ये मनोविकार?? इंसान से बड़ा कोई दूसरा वायरस है ही नहीं कायनात में, मेरी समझ का यही है सार।। भूखी थी,गर्भवती थी,एक नहीं, दो दो जीवन लेने का किसी को भी नहीं था अख्तियार। पहले ही खफा खफा सी है कुदरत, घाव को नासूर बना कर हम तो न करें किसी अस्तित्व को जार जार।।   क्यों बनते हैं वे हमारी थाली का भोजन, क्या शिक्षा संग नहीं मिले संस्कार??? खौफ ए खुदा नहीं आशंकित करता क्या मन को, ज़िन्दगी तो मिलती है बस एक बार।। सजा ए जुर्म तो मिलता