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मां जाई को ना करना पराई

मां जाई को न करना पराई

*हकदार* विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा

हकदार

Thought on tradition कोथली by sneh premchand

हक उसका भी बनता है,बेशक वो करती है इनकार, दौलत और जागीर नहीं, पर कोथली पर तो हो अधिकार। एक ही अँगने में खेल कूद कर बड़े होते हैं बहन भाई, जाने कितने अनुभव अहसासों से करते हैं वे प्रेमसगाई।। गुड़ियों से खेलने वाली लाडो जाने कब बड़ी हो जाती है, माँ बाबुल के हिवड़े में लगा कर स्नेहपौध,वो चुपके से विदा हो जाती है।। माँ का जाया भी एक कोने में हौले से नीर बहाता है, ले जाते हैं पालकी बहना की जब चार कहार,भीतर से टूट सा जाता है।। समय संग सब हो जाता है सामान्य,,अक्सर ज़िक्र लाडो का कर जाता है खुशगवार, कोठी और जागीर नही,पर कोथली पर तो हो इसका अधिकार।। कोथली सिर्फ कोथली नही,एक परवाह है, कोथली अपनत्व की हांडी में स्नेह का साग है, कोथली अनुराग के मंडप में लगाव का अनुष्ठान है।। अपनत्व का राग है,प्रेम का सुंदर सॉज है, गर्माहट है रिश्तों की,लगाव है उस अँगने का,जिसे छोड़ लाडो बसाती है नया बसेरा, एक खास अहसास है कि समझना न पराई बिटिया,है ये घर आज भी तेरा।। एक मोहर है प्रेम संबंधों पर,जो रिश्तों को फिर से ताजा कर जाती है, सावन के इस महीने में,मयूरों की पीहू पीहू पर,मायके की कुछ ज़्यादा ही याद आती है, एक जुड़ाव है

नेपथ्य by snehpremchand

एकदम से नही,पीहर धीरे धीरे ही होता है पराया। माँ बाप के राज में होती है शीतल सी छत्रछाया।। ज्यूँ ज्यूँ मात पिता हो जाते हैं बूढ़े,अशक्त और बीमार। लाडो के नाज़ नखरों पर भी समझौतों की पड़ जाती है बौछार।। जो कर देते थे नयन अयाँ, अल्फ़ाज़ों को नही करना पड़ता था बयाँ माँ बिन कहे ही सब समझ जाती थी, हौले से हाथ पकड़ कमरे में ले आती थी।। वो भी क्या दिन थे,था जब उनका सिर पर ठंडा साया।  एकदम से नही,पीहर धीरे धीरे ही होता है पराया।। वो कुछ लेने नहीं आती, उसकी खोजी सी नज़रें ढूंढती है अनमोल से लम्हे बचपन के,अपनी गुड़िया,और वो पल, जब मात पिता का मुख्य होता था किरदार। उसका भी होता था एक खुद का कमरा, अब एक कोने की भी नही रहती हकदार।। अब वो पहले सी ज़िद्द नही करती, मन हो या न हो,औपचारिकता भरे रिश्तों में सहज होने का अभिनय सा करती, फिर एक दिन जब मात पिता  ले लेते हैं जग से विदाई। फिर तो पीहर के नाम से ही दिल की  चौखट पर दस्तक देने लगती है तन्हाई फिर वो लहर,वो कसक,वो इच्छा, जाने कहाँ ज़मीदोज़ हो जाती है। नेपथ्य के पीछे चली जाती है बुआ, और भतीजी आगे आ जाती है।।             स्नेहप्रेमचंद अयाँ---इज़हार नेपथ्य--पर्दे