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हानि धरा की,लाभ गगन का((विचार स्नेहप्रेमचंद द्वारा))

हानि धरा की,लाभ गगन का, यही तेरे बिछोड़े का है सार। तूं है नहीं,नहीं होता यकीन, निभा गई सर्वोत्तम हर किरदार।। तूं ही परिधि,तूं ही व्यास। नहीं साधारण,तूं थी बड़ी खास।। तूं ही केंद्र,तूं ही बिंदु, तूं ही आकार। ऊंचे सपने देख कर, कर गई लाडो तूं साकार।। हानि धरा की, लाभ गगन का, यही तेरे बिछोडे का है सार। सबको अपना बनाने वाली, काबिल ए तारीफ रहा तेरा व्यवहार। सौ बात की एक बात है, प्रेम ही हर रिश्ते का आधार।। तूं है नहीं,नहीं होता यकीन, निभा गई सर्वोत्तम अपना हर किरदार।। रह रह कर रिस रहा है  ये रीता रीता सा मन, दरक रहे हैं सारे ही तार। तन ही नहीं, रूह भी रेजा रेजा सी हुई जा रही, एक तेरे न होने से बदल गया पूरा संसार।। हानि धरा की,लाभ गगन का, यही तेरे बिछोड़े का है सार।। सब्र ने भी आने से कर सी मनाही, सहजता भी सहज बनाने से कर रही इनकार। सब पता है,जाने वाले नहीं आते कभी लौट कर, नहीं मिलता व्याकुल से चित को कतई करार।। धुआं धुआं सा मन,अवरुद्ध कंठ, हर मंजर धुंधलाया धुंधलाया सा , सीने में जलन आंखों में तूफान का लगा है अंबार। जिजीविषा भी जैसे चली गई हो सोने, सच में तूं प्रेम का सच्चा श्रृं