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दिल का दिल से नाता(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

हर *संवाद और संबोधन* का होता है अर्थ, लफ्ज से अधिक लहजा कह जाता है। मुलाकात भले ही छोटी हो,पर छोटी सी मुलाकात में बात बड़ी हो, तो मिलन सार्थक कहलाता है।। प्रेम की केवल एक शर्त है प्रेम से पहले हो *सम्मान* चित में, फिर प्रेम खुद ही दौड़ा आता है।। प्रेम से नजर नहीं बदल जाता है नजरिया भी, प्रेम से जग सुंदर हो जाता है।। प्रेम किसी मजहब,भाषा, जाति,स्थान का मोहताज नहीं, प्रेम तो आंखों की भाषा बखूबी पढ़ पाता है।। प्रेम तो वो सागर है जहां हर विकार सद्गुण बन जाता है।। प्रेम अनुभूति है इजहार नहीं, हौले हौले समझ में आता है।। प्रेम तो वो *अनहद नाद* है जो इस कायनात में हर जीव समझ पाता है। प्रेम के बड़े ही सरल हैं सारे स्वर और व्यंजन, प्रेम की किताब का हर हर्फ चित अपमें घर कर जाता है।। ढाई अक्षर पढ़ कर प्रेम के, व्यक्तित्व पूर्ण हो जाता है।। प्रेम तो वह मयखाना है जहां बिन हाला के ही सरूर आ जाता है।। प्रेम के रंग में रंग देता है जो रंगरेज हमें,फिर दिल उसका हो जाता है।। मुझे तो प्रेम का यही स्वरूप समझ में आता है।। प्रेम तन का मिलन नहीं,रूह का रूह से गहरा नाता है।। प्रेम में पड़ा व्यक्ति अहम से वयम बन

धीरे धीरे