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करवा चौथ का पर्व ((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

जब रात्रि का अंतिम पहर भोर में तबदील होता है,अरुणिम ऊषा अपनी लालिमा चहुं ओर बिखेर देती है,दिनकर की आभा से जैसे कोई शरमाई हुई सी,नई नवेली सी दुल्हन की भांति भोर, अपने आगोश में ढेरों उम्मीदें आशाएं समाए हुए होती है, कतारबद्ध से परिंदे भोजन की खोज में अनंत गगन की उड़ान भरते हैं,चहुं ओर चेतना का स्पंदन होने लगता है,जिजीविषा अंगड़ाई लेती है,कर्म चहचहाने लगते हैं,ऐसे ही किसी भी नारी के जीवन में जब पति रूप में कोई पुरुष आता है,उसकी सोच में परिवर्तन आना लाजमी है।अधिकार संग जिम्मेदारी भी आती हैं।एक नए सफर का आगाज होने लगता है।इस नए सफर पर दोनो हमराही निकल पड़ते हैं,अनखोजी,अनदेखी राहों पर साथ साथ सफर करने के लिए।उनके पास प्रेम और विश्वास का टिकट होता है।इस सफर में मात पिता का साथ,सानिध्य,मार्गदर्शन घने  बरगद की ठंडी छाया सा अनमोल खजाने स्वरूप मिलता है।हमसफर संग जिंदगी की टेडी medhi सड़क के अनेक मार्गवरोधक बिन किसी खास बड़ी बाधा के पार हो जाते हैं। *मैं हूं न*वाक्य छोटा सा पर बहुत गहरा जीवन को आसान बना देता है।। समय संग इनके प्रेमचामन में प्रेम पुष्प के अंकुर प्रस्फुटित हो जाते हैं,ये

ओ प्रेम सुता!