ओ लेखनी! जाने कितने अहसासों को अभिव्यक्ति का तुम यकायक पहना देती हो परिधान। निज अनुभवों का छौंक लगा कर, लेखन के मधुर से तैयार कर देती हो पकवान।। जिसने पकड़ ली राह साहित्य की, सच मे ही होता है वो धनवान। सब जान कर बहुत कुछ कह देती हो, किसी भी विषय से नही हो अनजान।। किसी भी लेखक के लिए, लेखनी ही होती है भगवान। जानते नही जो तेरी कीमत, वो अभागे है कितने नादान।। सच मे ही तुम तो हो, अभिव्यक्ति का प्यारा भगवान।। अल्फाजों की तश्तरी में सजा देती हो भावों के पकवान।। आकंठ तृप्त हो जाते हैं पाठक हो जाते हैं मानसिक बलवान।। नजर नहीं नजरिया बदलने में हो सक्षम तुम,बस आती हो करनी पहचान।। सोच,कर्म,परिणाम की बहा देती हो त्रिवेणी, शिक्षा संग संस्कारों का भी करती हो आह्वान।। कितने ही अहसास अनकहे रह जाते, गर तूं ना चलती निष्काम।। धन्य हैं मात पिता और गुरु जन हमारे, दिया जिन्होंने अक्षर ज्ञान। लेखक कहीं नहीं जाते, फिजा में ही विचरण करते रहते हैं,दिमाग और दिल दोनों के विद्वान।।