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फंदा फंदा मां ने बुने रिश्ते(उद्गार सुमन प्रेमचंद द्वारा))

माँ इससे भी कहीं ज़्यादा थी  कभी कभी मेरे दिल में माँ का व्यक्तित्व उभर कर आता है और मैं हैरान हो जाती हूँ कि क्या क्या नहीं थी वो  मैं अपने जीवन  में माँ को हर जगह पाती हूँ  मुझे याद है जब मुझे टाडफाईड हुआ बारहवी क्लास मे , मरवा अस्पताल में थी और माँ मेरे सिरहाने थी लगातार  मुझे बहुत होश नहीं था पर वो बैठी दिखती थी  मुझे याद है चिकनपाकस की वो लंबी रातें , माँ सारी रात जागती थी कि मैं सो पाऊँ  मुझे याद है सिया के होने से पहले बहुत खुजली और बेचैनी होती थी माँ रात रात भर जागती थी जबकि खुद भी बीमार थी  मुझे याद है जब मैं और अंजु मैडीकल कालेज जाते थे तो मोड़ तक हमें देखती रहती थी  मुझे याद है ज्वार का भरौटा मेरा भी अपने सिर पर रख लेती थी छोटा सा  मुझे याद है जब बहुत बड़े ढेर कपड़ो को मैं माँ के साथ साबुन लगाती थी तो वो मुझे पहले ही उठा देती थी कि बाक़ी मैं कर लूँगी  मुझे याद है माँ खाना बनाकर आटो मे बैठकर मुझे और अमित को केवल खाना खिलाने होस्टल आ जाती थी  पता नहीं कितनी स्मृतियाँ है जो केवल हम ही जानते है .  माँ वो सब याद है  मां क़िला रोड थी  कैंप थी  म

तुरपाई(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

तुरपाई रिश्तों की उधड़ी तुरपन की,माँ करती रहती है तुरपाई। ममता के दीपक में उसने,सदा करुणा की अलख जलाई।। संभालती है उन्हें,सहेजती है उन्हें, पर लबों पर कभी अपने उफ्फ तक न लाई।। रिश्तों की उधड़ी तुरपन की .........................तुरपाई।। प्रतिफल उसे मिले न मिले पर दुआओं में उसके कमी न आई।। ममता के दीपक में करुणा की सदा ही उसने अलख जलाई।। कर्म की खिचड़ी रही पकाती,न बोली,न रोई, न चीखी,न चिल्लाई।। रिश्तों की उधड़ी तुरपन की माँ करती रहती है तुरपाई।।।

रिश्ते

ज़रूर

दर्द की तुरपाई

Poem on mother by sneh premchand तुरपाई

तुरपाई रिश्तों की उधड़ी तुरपन की, माँ करती रहती है तुरपाई। ममता के दीपक में उसने, सदा करुणा की अलख जलाई।। संभालती है उन्हें,सहेजती है उन्हें, पर लबों पर कभी अपने, उफ्फ  तक न लाई।। रिश्तों की उधड़ी तुरपन की .........................तुरपाई।। प्रतिफल उसे मिले न मिले पर दुआओं में उसके कमी न आई।। दिल में बेशक हों तूफ़ान हजारों, ऊपर से सदा वो है मुस्कराई।। वो न रुकी,न थमी, चलती रही कर्म की हांडी में सफलता की सब्जी बनाई।। रिश्तों की उधड़ी............तुरपाई।। ममता के दीपक में करुणा की,  सदा ही उसने अलख जलाई।। कर्म की खिचड़ी रही पकाती, न बोली,न रोई, न चीखी,न चिल्लाई।। औराक ए परेशां सी ज़िन्दगी को मां ही तो है समेट कर लाई।। रेज़ा रेजा से ख्वाबों पर, पुर सुकून होने की मोहर लगाई।। रिश्तों की उधड़ी तुरपन की,  माँ करती रहती है तुरपाई।।।        स्नेह प्रेमचंद

Thought on mother by sneh premchand

रिश्तों की उड़दन की माँ करती रहती है  तुरपाई। कर्म की स्याही से  मेहनत की बही माँ ने अपने सतत श्रम से बनाई।। पर इसे कहें विडम्बना या दुर्भागय, बच्चों को यह पढ़नी नही आयी।।