उसी समय पर आफ़ताब की आरुषि धरा चरणों को छूती है। उसी समय पर इंदु ज्योत्स्ना, निज शीतलता से,उद्विग्न मनों को सुकून सा देती है।। वही पवन के ठंडे झोंके, वही अनन्त गगन में जुगनू से तारों की छटा निराली।। वही प्रकृति की है नयनाभिराम हरियाली, वही तरुवर पर कूकती कोई कोयल है काली। वही आँगन में छोटी सी चिरैया चहक चहक सी जाती है। वही ओढ़ धरा धानी सी चुनरिया, पहन पीत घाघरा घूमर नाच नचाती है। इनमे से नही हुआ लॉक डाउन किसी का, हमे ये क्यों समझ नही आती है??? रचनात्मकता के भी खुले खड्ग हैं, बस मन से कहो, दहलीज़ पर इसके दस्तक तो दे। ये रहती है सदा ही ततपर, बस सृजन के इन अग्निकुंड में, प्रयासों की कोई आहुति तो दे।। सृजन की नही कोई पाबंदी इसे विहंगमता की सहेली बनने दो।। प्रेम पर भी नही लगी कोई बंदिशें, इसे अनन्त सिंधु सा बहने तो दो। देने से ही लौट कर आता है ये, धर्म,सरहद,जाति से निकलकर खुली फिजां में रहने तो दो।। अध्ययन पर नहीं कोई पाबन्दी इसे खुली सोच के विविध आयामो से मिलने तो दो।। दीया ज्ञान का जलने तो दो। अज्ञान तमस हरने तो दो।। करुणा पर नहीं कोई पाबंदी, उसे हर मन मन्दिर में रहने तो दो।। प