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Showing posts with the label त्रिवेणी

सेवा साथ और विश्वाश

वेद योग और आयुर्वेद(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

वेद, योग और आयुर्वेद की दिव्य त्रिवेणी जब बहती है*  कर लो अर्जित जो कर सकते हो, पावन धारा यह कहती है।।  *विस्तृत सोच और विस्तृत विकास* **समग्रता का है योग में वास** नहीं व्यक्तिगत लाभ ही उद्देश्य योग का,  *वसुधैव कुटुंबकम*नारा बने खास  *रोगों को समूल मिटाता है योग* * जीवन में आनंद बढ़ाता है योग* * नहीं पलायन वादी संस्कृति का नाम है योग*  *आत्मा को पावन बनाता है योग*  *जीवन को सही राह दिखाता है योग*  *अंधेरे में उजियारा लाता है योग*  *निराशा को आशा में बदलता है योग* *Body, Mind और soul को सच में निखार देता है योग* * अंधेरे की किरण जगाता है योग* *अपनाएं योग भगाए रोग*  इसी सोच से होगा विश्वकल्याण। जागरूकता की ऐसी चलेगी आंधी,  जर्रा जर्रा ले प्रकृति का इसे पहचान।।  योग प्राथमिक है जीवन में,  सांसों की माला में सिमरे प्रभु का नाम। व्याधि विकार नष्ट हो जाएं सारे  योग आए अब जन जन के काम।।      स्नेह प्रेमचंद

प्रेम,सौहार्द और अपनत्व((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

प्रेम सौहार्द और अपनत्व की  त्रिवेणी जिस देस में बहती है। है वो मेरे बाबुल का अंगना, ये मेरी लेखनी कहती है।। भाई और बहन है पुष्प  एक ही चमन के, महक दोनो में एक सी रहती है।।          स्नेह प्रेमचंद

लय,गति,ताल

क्या है पिता

क्रिया और प्रतिक्रिया

कला,संगीत,साहित्य

कहती है मेरी लेखनी

लय,गति,ताल

बाल गोबिंन भगत thought by snehpremchand

लय, ताल,गति की अदभुत त्रिवेणी बालगोबिन भगत के गायन में थी विराजमान , संगीत की गंगोत्री से जन्मे ये धरतीपुत्र,ग्रहस्थ होते हुए भी सच्चे साधु के रूप में थे वरदान।।

बुद्ध मय thought by snehpremchand

बुद्धमय से हो जाए जीवन, हो सोच समझ का विहंगम विस्तार। कुछ भी तो साथ नहीं जाना, आये समझ जीवन का सार। सोच,कर्म,परिणाम की त्रिवेणी बही है संग संग सदा से ही, जानें हम ज़िम्मेदारियाँ और अधिकार।।               Sneh prem chand

लॉक डाउन poem by snehpremchand

उसी समय पर आफ़ताब की आरुषि धरा चरणों को छूती है। उसी समय पर इंदु ज्योत्स्ना, निज शीतलता से,उद्विग्न मनों को सुकून सा देती है।। वही पवन के ठंडे झोंके, वही अनन्त गगन में जुगनू से तारों की छटा निराली।। वही प्रकृति की है नयनाभिराम हरियाली, वही तरुवर पर कूकती कोई कोयल है काली। वही आँगन में छोटी सी चिरैया चहक चहक सी जाती है। वही ओढ़ धरा धानी सी चुनरिया, पहन पीत घाघरा घूमर नाच नचाती है। इनमे से नही हुआ लॉक डाउन किसी का, हमे ये क्यों समझ नही आती है??? रचनात्मकता के भी खुले खड्ग हैं, बस मन से कहो, दहलीज़ पर इसके दस्तक तो दे। ये रहती है सदा ही ततपर, बस सृजन के इन अग्निकुंड में, प्रयासों की कोई आहुति तो दे।। सृजन की नही कोई पाबंदी इसे विहंगमता की सहेली बनने दो।। प्रेम पर भी नही लगी कोई बंदिशें, इसे अनन्त सिंधु सा बहने तो दो। देने से ही लौट कर आता है ये, धर्म,सरहद,जाति से निकलकर  खुली फिजां में रहने तो दो।। अध्ययन पर नहीं कोई पाबन्दी इसे खुली सोच के विविध आयामो से  मिलने तो दो।। दीया ज्ञान का जलने तो दो। अज्ञान तमस हरने तो दो।। करुणा पर नहीं कोई पाबंदी, उसे हर मन मन्दिर में रहने तो दो।। प

सलाम