मंज़िल मिले न मिले ,ये तो मुक़ददर की बात है। हम कोशिश भी न करें,ये तो सच मे बुरी बात है। अकर्म से तो बिन फल का भी ,कर्म अच्छा होता है। बेशक वांछित फल न मिले हमको,पर कोई न कोई फल उसमे छिपा होता है। आ जाता है जब समझ ये,समझो आयी भोर,बीत गयी रात है। मंज़िल मिले न मिले,ये तो मुक़ददर की बात है।।।।।।।।।।।।।