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मां केवल मां नहीं होती(हृदय उद्गार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

माँ केवल माँ नही होती, माँ होती है हक़ और अधिकार सहजता ,उल्लास,पर्व है माँ, माँ जीवन को देती है संवार जिजीविषा है माँ,उमंग है माँ, एक माँ ही तो करती है इंतज़ार हर रिश्ते से भारी पड़ता है माँ का रिश्ता,चाहे करो या न करो स्वीकार पतंग है जीवन तो डोर है माँ,  लंबी मावस के बाद,  सबसे उजली भोर है माँ शिक्षा है मां संस्कार है मां सच में खुशी और अधिकार है मां जीवन के तपते मरुधर में, मां सबसे ठंडी सी छाया खुशी हो या फिर हो कोई गम मां का नाम जेहन में आया नसीहत की पक्की वसीयत है मां मां से ही पूर्ण होता परिवार मां केवल मां ही नहीं होती मां होती है हक और अधिकार माँ है तो जाने का बैग भी  झट से हो जाता है तैयार अब चिढ़ाता है किसी कोने में पड़ा हुआ,नही होंगे कभी माँ के दीदार मन में तो सदा बसी रहोगी माँ, सच थी कितनी तुम समझदार भांति भांति के मोतियों से बनाया माँ तूने कितना अद्भुत  कितना प्यारा, जीने का सहारा प्रेमहार *मां कहीं जाती नहीं है रहती है सदा हमारे विचारों में* *हर धूप छांव में आज भी आएगी नजर,जरा झांक कर तो देखो मन के गलियारों में*