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बेटी मां की परछाई

Poem on mother by Sneh premchand कभी हकीकत कभी येे सपना

कभी हकीकत कभी ये सपना सच मे ही नही रहा कोई अपना ज़िन्दगी का अनुभूतियों से परिचय करने वाली मैं हूँ न के मधुर सम्बोधन से गोद मे सुलाने वाली भोर की मीठी हलचल माँ दोपहर की सुकूनभरी सी निंदिया माँ साँझ की मुलाकातों की मीठी दास्तान सी माँ रात को शीतल चाँद सी अपनी आगोश में हर चिंता को समाने वाली माँ माँ के बिन जीना तो पडता है पर हर मोड़ पर यादों के झरोखों से झांकने लगती है माँ कभी हकीकत,कभी सपना सी लगती है माँ।। मां कहीं नहीं जाती,यहीं कहीं रहती है हमारे आचार,विचार,व्यवहार,सोच,कार्य शैली में लम्हा लम्हा प्रतिबिंबित होती है मां।।       कभी हकीकत,कभी सपना सी लगती है मां।।       स्नेह प्रेमचंद