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मां साथ थी((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

जब इस जगत में जन्म लेकर आँखें खोली,तो माँ साथ थी,जब बचपन बेख़ौफ़,निर्बाध गति से चंचल सी नदिया की भांति बह रहा था,तब माँ साथ थी,कोई गिला,शिकवा,शिकायत करनी होती,तो माँ साथ थी,उसे कह देते थे,कोई गलती हो जाती, तो माफ़ करने केलिए माँ साथ थी,स्कूल से घर आते,तो मनपसंद खाना तैयार रखने वाली,सारी आशा,निराशाओं को अपने आँचल में समेटने को आतुर माँ साथ थी,कॉलेज गये,युवावस्था आयी,अनेक उत्तार चढ़ावों में माँ साथ थी,नोकरी करने लगे,तो घर लौटने पर माँ साथ थी,इंतज़ार करती हुई सी,भोजन परोसती सी,बिना चिड़चिड़ाहट के माँ साथ थी,फिर माँ बाप ने एक नियत समय पर हाथ जीवनसाथी को सौंप दिया,माँ को छोड़ कर जाना पड़ा,पर पर फिर भी माँ साथ थी,घर लौट कर आने पर मिलने की आशा तो थी,माँ के साथ कितना कुछ चला गया, है न