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जब भी यादों को कुरेदा मैंने ,(thought by Sneh premchand)

जब भी यादों को कुरेदा मैंने, अतीत के झोले से कुछ स्मृतियां निकाल कर लाई मां तूं ही तूं बस,तूं ही तूं, नजर आई। उठती है दिल में जैसे कोई सुनामी, फिर कुछ भी तो नहीं देता सुनाई।। जब भी यादों को........ ज़िन्दगी का परिचय जब हुआ  अनुभूतियों से,तब तूं साथ थी। हर संज्ञा,सर्वनाम,विशेषण का हो रहा था जब बोध मुझे, तब भी तूं साथ थी।। हो रहा था जब अक्षर ज्ञान मुझे, तब भी तूं साथ थी।। बचपन जब ले रहा था करवट, ज़िन्दगी एक नए रूप की चौखट खटखटा रही थी, तब भी तूं साथ थी।। फिर एक दिन तूने मुझे रुखसत कर दिया मां,पर सुकून था दिल में, तूं है तो यहीं कहीं, जब जी चाहेगा,मुलाकात हो ही जाएगी।। मैं जब ज़िन्दगी के नए भंवर में उलझी उलझी सी थी, तब भी कहीं न कहीं तूं साथ थी।। फिर एक दिन ऐसा आया जलजला, तूं छोड़ चली गई मां, चल रही है फिर भी ज़िन्दगी, पर तूं नहीं,तो बहुत कुछ नहीं।। पर मुझे लगता है तूं कहीं नहीं गई, मेरे एहसासों में सदा थी,सदा है,सदा रहेगी, मेरी रूह का लिहाफ है तूं मां, तेरे अस्तित्व में मेरा व्यक्तित्व समा सा जाता है मां। क्या लिखूं तेरे बारे में,अधिक तो कुछ समझ नहीं आता मां।। कोई तुझ सा पूर्