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अंधेरा और उजाला भाग 2/poem by sneh premchand

किसी मोड़ पर मिले जब दोनों,करने लगे कुछ ऐसी बात। सुनकर खड़े हो गए रौंगटे, जाना क्या दिन है और क्या है रात।। अंधेरे को दे अपना परिचय,हौले हौले बोला उजाला,  मेरा तो सुन लिया परिचय,अब तुम बतलाओ, कहाँ कहाँ पर होता है तेरा वास। क्यों करते ही दर्शन तेरे,टूट जाती हर दिल की आस।। मित्र,अधर्म है जहाँ, अन्याय है जहाँ, समझो,वहीं रहता है अंधेरा। मावस हो जाती है वहाँ इतनी लंबी, नही आता पूनम का सहज सवेरा।। वहाँ हूँ मैं, जहाँ लुटती है नारी, वहाँ हूँ मैं ,जहाँ भेद भाव की सुलगती चिंगारी, वहाँ हूँ मैं, जहाँ नफरत के अखाड़े में,हिंसा का दंगल होता है। वहाँ हूँ मैं, जहाँ इंसा क्रोध,आलस्य से अपना आपा खोता है। वहाँ हूँ मैं,जहाँ संवेदनहीनता अपना बिगुल बजाती है। वहाँ हूँ मैं जहाँ लालसा अक्सर हिंसक बन जाती है। वहां हूँ मैं जहां वासना असंख्य पाप कराती है। वहाँ हूँ मैं जहां ईर्ष्या की सड़क पर नफरत का सेतु बनता है। वहाँ हूँ मैं जहाँ अज्ञान का साग स्वार्थ की कड़ाही में पकता है। वहाँ हूँ मैं, जहाँ विश्वासघात की कावड़ में अहंकार का जल भरा जाता है। वहाँ हूँ मैं जहाँ निर्लज्जता बड़े रौब से रहती है। वहाँ हूँ जहाँ रक्षक ही भक्षक