राम सखा सुग्रीव थे और शाम सखा थे सुदामा। धर्म,क्षेत्र,मज़हब,जात पात से ऊपर है दोस्ती, अपनत्वसंगीत में सौहार्द का सदा बजता है मधुर तराना।। जाने किन पिछले संस्कारों से एक आत्मा का दूसरी आत्मा से जुड़ जाता है नाता, जाने कौन सी अनजानी सी कशिश को प्रेम अपने गले है लगाता।। मन की मन से बंध जाती है डोर। हर पहर सुहाना हो जाता है, हो चाहे निशा,दोपहर या फिर उजली भोर।। साँझे साँझे से अहसास कर देते हैं सब इज़हार। कतरा कतरा सी जिंदगी को होने लगता है खुद से प्यार।। वक़्त का कारवां गुजरता रहता है,मीठे पलों की सौंधी महक से सब खुशगवार। कल खेल में हम हों न हों,पर यादों के तो बजते रहेंगे तार।। दोस्ती प्रेम है,दोस्ती उल्लास है,दोस्ती जीने की चाह है,भूलभुलैया में अदभुत सी राह है।। बजा नाद दोस्ती का जिस चित में,हो जाता है वो प्रेम दीवाना, राम साख सुग्रीव थे और शाम सखा थे सुदामा।। स्नेह प्रेमचन्द