Skip to main content

Posts

Showing posts with the label बदलाव

सुंदरता मन की

अब एकलव्य नहीं रहे

प्राण पखेरू ( thought by Sneh premchand)

सोच बदलेगी तो बदलेगा ज़माना thought by sneh premchand

सोच बदलेगी तो बदलेगा ज़माना। आओ मिल कर गाते हैं ये तराना।।          स्नेह प्रेमचंद

Thought on time by sneh premchand दौर बदल जाते हैं

दौर बदल जाते हैं,  सच में दौर बदल जाते हैं।  जिस घर में हम बड़े हक से, जीवन का अहम सा हिस्सा बिताते हैं।।  वहां फिर एक रात बिताने से भी  हम इतना क्यों कतराते हैं।। बुआ की जगह भतीजी के कपड़े,  उन्हीं अलमारियों में सज जाते हैं।। मां बाबा का प्यारा कमरा, भाई भाभी अपनाते हैं।। मेज़ वही है खाने का, बस खाने वाले किरदार बदल जाते हैं।। वही आंगन है वही रसोई,  रहने वाले हकदार बदल जाते हैं।। पहले मैं,पहले मैं,करके लड़ते थे  जो हम बड़े  हक से, पहले आप,पहले आप, करके औपचारिकता सी निभाते हैं। होती नहीं थी जब कोई ख्वाहिश पूरी, रूठ जल्द से मुंह फुला लेते थे। अपनी मर्ज़ी से ही एक दूजे को, चीजें देते थे। अब तो रूठना ही छोड़ दिया, जबसे मनाने वाले चले गए हैं, सच में सोच के, आयाम ही बदल जाते हैं।। लम्हा लम्हा ज़िद को समझौते में बदलता पाते हैं। सच में ही दौर बदल जाते हैं।। अधिकार और ज़िम्मेदारी, ये भी दोनों ही बदल जाते हैं। कहीं कुछ मिलता है,  तो कहीं कुछ छोड़े जाते हैं। ज़िन्दगी का परिचय हुआ था,  जहां नए नए एहसासों से, वहीं खुद को बेगाना सा पाते हैं। सच में दौर बदल जाते हैं। हर संज्ञा,सर्वनाम,वि

Poem of world परिवर्तन by sneh premchand

इस परिवर्तनशील संसार मे कुछ भी स्थाई नही है,न सुख,न दुख,न समस्याएं,न खुशियाँ।फिर हम क्यों ऐसा सोचते हैं जैसे कुछ बदलेगा ही नही।परिवर्तन अवश्यंभावी है।जब दिन के पहर एक जैसे नहीं,बरस के मौसम एक जैसे नहीं,तन मन की अवस्था एक सी नहीं,रिश्तों के स्वरूप एक से नहीं,फिर सब एक सा कैसे रह सकता है।।        स्नेह प्रेमचंद

धीरे धीरे मैं बदलने लगी हूँ। poem by snehpremchand

धीरे धीरे मैं बदलने लगी हूँ, गहरी साँझ सी ढलने लगी हूँ। होने लगा है परिचय मेरा खुद से ही, एक नए व्यक्तित्व में पिंघलने लगी हूँ। अब नहीं होते कोई गिले शिकवे किसी से, समझौतों के कलमे पढ़ने लगी हूँ। अब नाराज़ भी नहीं होती किसी से, खुद ही रूठने खुद ही मन ने लगी हूँ। उफ़नती नदिया सी बहती रहती थी  जो कल कल मैं, अब शांत सागर  सी सिमटने लगी हूँ। छोटी छोटी सी बात माँ कानों में कहने वाली, अब बड़े बड़े मसलों पर भी सब ठीक है , बड़ी सहजता से असत्य कहने लगी हूँ। मैं धीरे धीरे बदलने लगी हूँ। बात बात पर मुखालफत करने वाली मैं, हर बात पर हामी भरने लगी हूँ। अक्षर ज्ञान पाकर खुद को  समझती थी जो  जहीन मैं, अब ज़िन्दगी की पाठशाला के  पढ़ पाठ, ध्वस्त परस्त सी होने लगी हूँ। मैं धीरे धीरे बदलने लगी हूँ।। कोई चिंता न छूती थी चित्त को कभी मेंंरे, अब लम्हा दर लम्हा   चिंतन से,  रोज़ ही रूबरू होने लगी हूँ। निर्धारित पाठयक्रम रटने वाली सी मैं, साहित्य के आदित्य से दमकने लगी हूँ। बाहर घूमने को  तवज्जो देने वाली, मन के गलियारों में विचरण करने लगी हूँ। जमा घटा म

दिल