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सावन भादों(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

यूं हीं तो नहीं ये सावन भादों,  इतने गीले गीले होते हैं। जाने कितने ही अनकहे अहसास, अपने नयनों को भिगोते हैं।। जिंदगी के इस सफर में मिलते तो बहुत से हैं, बहुत कम हैं जो दिल के,  इतने करीब होते हैं। हो जाती है जब असमय ही उनकी रुखस्ती जग से, सही मायनों में गरीब हम होते हैं।। रूह हो जाती है रेजा रेजा, तन्हाई में खुल कर रोते हैं। यूं हीं तो नहीं ये सावन भादों,  इतने गीले गीले होते हैं।।।। लगती हो जिन्हें चोट वहां  और दर्द यहां पर होता हो, कितने कम ऐसे लखत ए जिगर जहान में होते हैं। मुलाकात बेशक रोज न होती हो उनसे, पर एहसासों में तो आज भी रूबरू उनसे होते हैं।। यूं हीं तो नहीं ये सावन भादों इतने गीले गीले से होते हैं।। अच्छे लगते हैं मुझे ये सावन भादों, इनमे भीगते हुए,  कोई बहते अश्क नहीं देख पाता। जी भर कर खुल कर रो लेते हैं हम, गुब्बार हिया का हल्का सा हो जाता।। लगती है जो झड़ी सी कई दिन, वे रिसते रिसते से कई रिसाव होते हैं। कभी कभी अचानक जो फटते हैं बादल,ये दिलों में रुके तूफान होते हैं। कोई बांध नहीं बांध पाता फिर किसी भाव को,आसार प्रलय के होते हैं।। यूं हीं तो नहीं,ये सावन भा

सावन भादों

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