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Thought on mother by sneh premchand लम्हो की एफ डी

गर लम्हों की भी कोई एफ डी होती, तो ज़िन्दगी के झोले से मैं हौले से मैं उन लम्हों का ही करती इंतखाब। थी जिन लम्हों में मां संग मेरे, पन्ना पन्ना यूं ही बढ़ती रही किताब।। सबसे अधिक रिटर्न है  बस इसी रिश्ते में, चाहे पूरी उम्र में सारे नातों का  लगा लो हिसाब।। गर लम्हों की भी होती कोई एफ डी, तो ज़िन्दगी के झोले से मैं बचपन के उन लम्हों को चुनती, जब बचपन में नहीं थी कोई चित चिंता, सहजता जीवन से दामन नहीं चुराती थी। होती थी गर कोई भी परेशानी, मां झट से दौड़ी आती थी।। लागत से अधिक प्राप्ति है इस नाते में, हर सम्भव प्रयास से, मां फरमाइश पूरी कर जाती थी।। उन लम्हों की भी करा लेती मैं एफ डी, जब भाई बहनों संग बड़े मज़े से रहती थी। जो भी आता था मेरे दिल में, मैं ततक्षण ही कह देती थी।। रूठती तो फट से मना लेते थे  एक दूजे को, नहीं दिल पर बात कोई भी लेती थी।। उन लम्हों की भी करा लेती एफ डी, जब मां संग, जाना होता था बाज़ार। वो मनचाहा सब दिला देती थी, है उसके प्यार का कर्ज उधार।। उन लम्हों की भी करा लेती एफ डी मैं, जब बाबुल का सिर पर प्यारा साया था। लगती नहीं तपिश थी तब कोई, सुकून ए जेहन उ