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धरा ने धीरज गगन ने विस्तार(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा)

 *प्रकृति ने  ही कर के भेजा है  मां का अदभुत,अनोखा,अद्वितीय श्रृंगार* *चित में ममता,चेतना में धीरज, मां ही आकृति,मां ही आकार * *मां ही शब्द है,मां ही भाव है मां से होता हर सपना साकार* *वेद पढ़े न हों बेशक मां ने, वेदना पढ़ने में न मानी कभी हार* *कुछ कर दरगुजर  कुछ कर दरकिनार* यही करती रहती है ताउम्र मां, हर नाते के जोड़ती रहती तार प्रकृति ने तो कर के ही भेजा है मां का अदभुत अनोखा अद्वितीय श्रृंगार *हम पर शुरू हम पर ही खत्म हो जाता है मां का संसार* हर समस्या का समाधान है मां मां सम्मान की पूरी हकदार *गणित में थोड़ी कमज़ोर होती है मां, दो रोटी मांगने पर देती है चार* *मनोविज्ञान में आती है अव्वल सबसे सुंदर जग में मां का किरदार* *9 महीने कोख में,2 बरस गोद में, आजीवन दिल मे बसाए रखने का सिलसिला चलता रहता है लगातार* *कभी नहीं थकती,कभी नहीं रुकती मां से ही मोहक ये संसार* ऐसी देवी स्वरूपा मां को , शत शत नमन और वंदन बारंबार प्रकृति ने तो करके ही भेजा है मां का अदभुत अनोखा विलक्षण श्रृंगार हम कंठ तो आवाज है मां मां है तो मुस्कुराते हैं अधिकार हम जुगनू तो भास्कर है मां मां के उजियारे से होते चमत्