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श्रद्धा और तर्क

ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर,एक दिन दोनों मिल जाते हैं, करते हैं कुछ बातें ऐसी,जिसे सुन हम दंग रह जाते हैं।। बेचैन तर्क कुछ बोला ऐसे, सुन श्रद्धा मंद मंद मुस्काई, तनिक भी मन नही डोला उसका,कहते हुए न ज़रा सकुचाई।। "आस्था"है माँ,"विश्वास"पिता हैं और "धीरज"लगता है भाई। है पूरा ही परिवार मेरा ऐसा,तभी मैं श्रद्धा बन पाई।। सुन श्रद्धा का सुंदर परिचय,तर्क ने प्रकट किए निज यूँ उदगार, "बिन प्रमाण कैसे मान लेती हो तुम सब कुछ,क्या है तुम्हारी सोच का दृढ़ आधार???? मानों तो पत्थर भी भगवान है, न मानों तो गंगा भी है सादा बहता पानी। तुम दिमाग में रहते हो लोगों के, मैं हूँ लोगों के दिलों की रानी।। चीजों को सिद्ध करने में ही, बिता देते हो पूरी ज़िंदगानी। फिर भी आता नहीं कुछ हाथ तुम्हारे, नहीं आती समझ तुम्हे हिवड़े की कहानी।। अतृप्त से भटकते रहते हो तुम, नहीं मंज़िल तुम्हे कोई मिल पाती। क्या सही है,क्या गलत है, इसी आपाधापी में ज़िन्दगी चली जाती।। मैं अनन्त सागर सी बहती रहती हूं, मेरी शरण में लोगों को मिलता है चैन। तुम किसी तड़ाग का ठहरा मटमैला पानी, तड़फते रहते हो दिन रैन