कितनी विहंगम कितनी निराली,अदभुत है ये कायनात। धरा,गगन,इन्दु,आदित्य,पर्वत कितनी अनुपम कुदरत की सौगात।। कहीं गंगोत्री से निकली है गंगा,कहीं यमुनोत्री से निकल कर अविरल यमुना बहती है। कहीं अनन्त सा सागर ओढ़े है खामोशी की चादर,कभी इसी में सुनामी रहती है। कहीं देवदार हैं कहीं चिनार,कहीं आमों पर आती है अमराई। कहीं कूजती है कोयल काली,कहीं बरखा में प्रकृति और भी है खिल आई।। Snehpremchand