सतयुग की सीता, द्वापर की द्रौपदी और कलियुग की दामिनी,तीनों, एक दिन स्वर्ग में मिल जाती हैं। खोल कपाट वे अपने हिया के मन की पाती एक दूजे को पढ़ाती हैं।। कहा द्रौपदी ने सीता से,एक ही नाव के हैं हम तीनों मुसाफिर, सता गया हमें समाज ये पुरुष प्रधान। रानियाँ होकर भी हम न बच पाई, आम नारी को कैसे बख्शता होगा ये निर्मम जहान।। अग्नि से जन्मी मैं, पिता द्रुपद ने मुझे दिल से कभी नही अपनाया, थी पुत्र प्राप्ति की इतनी अधिक लालसा उनकी, मेरा होना उनको कतई न भाया।। मेरे जन्म से ही दिल टूटा मेरा, मैंने खुद को जाने कितनी मर्तबा समझाया। स्वयंवर में मेरा वरण किया पार्थ ने, पर सारे भाईयों की मुझे अर्धांगिनी बनाया।। वस्तु नही व्यक्ति थी मैं, क्यों नारी होकर भी माँ कुंती को ये समझ न आया। कर दिया विभाजन मेरा पांच पांच पतियों में मुझे ऐसा जीना कभी न भाया।। मन से तो नारी एक ही पुरुष को करती है अंगीकार। तुम ही सोचो मेरी व्यथा, मैंने किस विध की होगी स्वीकार।। फिर भी समझा इसे भाग्य का लेखा, मैंने पाँचों पतियों को अपनाया। नहीं मिलेगा इतिहास में कोई मुझ सा उदहारण, कर प्रेम मैंने सबसे, अपना पत्नी धर्म निभाया।। चाहा तो