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Showing posts from December, 2022

बाबुल के दहलीज पार कराने के बाद

 कुछ मिला जुला सा लगता है बाबुल के लाडो को दहलीज पार कराने के बाद। कैसा होता है मंजर,देख मां जाई को  आ गया सब याद।। *खुश भी होता है मन  पर नयन भी होते हैं नम* *बेटी की जितनी भी करो तारीफ, उतनी है होती है कम* सुनने में बेशक अच्छा लगता है बेटा हुआ है पर जीने में बेटी ही कण कण को करती है आबाद कुछ मिला जुला सा लगता है बाबुल के बेटी को दहलीज पार कराने के बाद।। एक बार तो लगता है जैसे कोई ले गया हो अचानक ही जीवन का सबसे अनमोल खजाना। नम नयन,अवरुद्ध कंठ,धुंधलाया मंजर चक्रव्यूह सी सोच,लगता है मुश्किल खुद पर काबू पाना।। एक रिक्तता सी लगती है डसने, बहुत मुश्किल सा होता है इससे बाहर आना।। एक बेटी के मात पिता ही समझ सकते हैं कैसा होता है बेटी का जाना।। लम्हा लम्हा फिर समझ को आ जाती है समझ **है तो ये दस्तूर ए जहान** मात तात का कर्तव्य है, सही समय पर करना कन्यादान।। वो पराई हो कर भी सबसे अपनी होती है जैसे तन में होते हैं प्राण।। *समझ को आ जाती ही समझ* बेटी की विदाई हुई तो क्या *एक और बेटा भी तो मिला* सच में सोच ही तो होती है प्रधान।। मात तात को हो जाती है तसल्ली है,हमारे से भी ज्यादा लाडो

दिसंबर और जनवरी का नाता

जाने को तैयार दिसंबर

मैने भगवान को तो नहीं देखा

असली कर्मयोगी

त्रिवेणी

मात्र दीवार ही नहीं

खुद खुदा भी हो गया होगा हैरान

दास्तान(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

अनंत उड़ान

पिता औलाद के पंखों को अनन्त उड़ान भरने के लिए असीम विस्तार लिए हुए गगन देता है। ये औलाद पर करता है निर्भर वो कितना ऊंचा उड़ती है,गिर भी जाये,तो पिता फिर गोदी में ले लेता है।। अपने से आगे बढ़ते हुए देख जो खुशी से फूला नहीं समाता,वो पिता कहलाता है।। मां बच्चे की थाली में रोटी की चिंता करती है। पिता चिंता करता है आजीवन बच्चे की थाली में भोजन रहे।। पिता चाहता है उसका बच्चा दुनिया के किसी भी चक्रव्यूह में अभिमन्यु सा ना फंस जाए।। पिता से बढ़ कर हितैषी कोई नहीं।। संवाद भले ही कम होता हो पिता का बच्चों से, पर संबंध तो लम्हा लम्हा गहराता है।। मेरी छोटी सी सोच को तो यही समझ में आता है।।           स्नेह प्रेमचंद

खाना तो वो खाता था(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

चंद लम्हों में कैसे कह दूं (( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

चंद लम्हों में कैसे कह दूं?????   चंद लम्हों में कैसे कह दूं????? *45 बरस की विविधता भरी दास्तान* फर्श से अर्श तक का सफर तय करने वाली, सच में, मेरी मां जाई बड़ी महान।। सपने बुनते बुनते  कब वक्त के लम्हे उधड़ गए, पता ही नहीं चला, और हो गया एक बहुत बड़ा सुराख। नहीं लगा पाए आज तलक भी पैबंध कोई, ना ही बना पाए कोई ऐसी खुराक।। जिसे खा कर भूल जाएं तुझे, समय भी जैसे हो गया स्तब्ध,  आवाक।। विषम हालातों में भी मां जाई! मुस्कान रही,सदा तेरा परिधान। चंद लम्हों में कैसे कह दूं, 45 बरस की विविधता भरी दास्तान।। न आया क्रोध कभी, न हुई कभी उद्वेलित, खोजती रही हर समस्या का समाधान। *यकीन को भी नहीं होता यकीन* जिंदगी के रंगमंच से, यूं हौले से कर जाएगी प्रस्थान।। *सोच कर बोलती थी* कभी नही बोला ऐसा  जो   बोल कर सोचना पड़े, जन्मजात था तेरा व्यवहारिक ज्ञान।। चंद लफ्जों में कैसे कह दूं??? बरस 45 की अदभुत अनोखी दास्तान।। सही मायनों में डिप्लोमेट थी तूं मां जाई! हौले से खिसक गई जिंदगी के रंगमंच से,  हम देखते ही रह गए नादान।। **मधुर था तेरा आगमन, अकल्पनीय है तेरा प्रस्थान** धूप हो या छांव हो, मुस्कान रही

संकल्प से सिद्धि तक(( दुआ स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

** संकल्प से सिद्धि तक छिपे होते हैं जाने कितने ही प्रयास** नाव को गर मिल जाता है मांझी सागर में, नाव आ ही जाती है साहिल के पास।। लक्ष्य निर्धारण,फिर उसी दिशा में प्रयासरत,आम से बन देती है व्यक्ति को अति खास।। चप्पे चप्पे में बन गए निशान उपलब्धियों के, साथी सा बन गया है विकास।। *एक एक करके बना कारवां* अहम से वयम की राहों पर किया निवास।। स्वच्छता,सौंदर्य, कला की बह गई त्रिवेणी निर्बाध गति से, दूरदर्शी सोच नहीं होती सबके पास।। प्रयासों की गंगोत्री से सफलता के गंगासागर तक आने वाली हर समस्या का कर दिया ह्रास।। मातृभूमि का ऋण चुका देते हैं हम ऐसे, स्वेच्छा से सुंदर नहीं,  अति सुंदर हो जाते हैं प्रयास।। आदर उम्र से नहीं कर्मों से मिलता है, सबको इस सत्य का आभास।। असली बैंक बैलेंस धन नहीं, अच्छे लोग होते हैं, भाग्यशाली है *हमारा प्यार हिसार* जो आप सरीखे अनुभवी हैं हमारे पास।। *स्वास्थ्य लाभ* मिले सदा आपको, दवा से दुआ होती हैं खास।।

असली शांता क्लोज

जीवन है चलने का नाम

यूं हीं तो नहीं

हर्फ दर हर्फ

जी चाहता है(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

जी चाहता है फलक से तोड़ के ले आऊं आज में ढेरों तारे जी चाहता है दुआओं की सरगम से कोई दिल से पुकारे जी चाहता है  प्रेम वृक्ष की कलियाँ नवयुगल का जीवन सवारे जी चाहता है आये लेना हमे भी किसी के दर्द उधारे जी चाहता है मौज़ ले आये भटकते हुओं को किनारे जी चाहता है हम याद करें आज उन अपनों को जिनके होने से ही हैं अस्तित्व हमारे जी ही तो है,कुछ भी चाह सकता है

नन्हे सिपाही

चंद लम्हों में कैसे कह दूं???((लेखनी स्नेह प्रेमचंद की))

चंद लम्हों में कैसे कह दूं???? चंद लम्हों में कैसे कह दूं???  मैं 75 बरस की लंबी कहानी। धूप,छांव सी रही जिंदगी, शांत, गहरी जैसे सागर का पानी।। *मां बाबुल की लाडली मैं* तीनों बहनों में बड़ी सुहानी। निरुपमा,बेबी दो बहनें मेरी, संग बीता बचपन यही मेरी कहानी।। बड़े लाड चाव से खेली उस अंगना, जेहन मे आज तलक बचपन की निशानी।। एक दिन बन उड़ी चिरैया, और बनी साजन की रानी।। अलग परिवेश,अलग परवरिश पर घुल गई ऐसे जैसे शक्कर पानी। सपने बुनते बुनते कब वक्त के लम्हे उधड़ते गए,पता ही नहीं चला,देखा पीछे मुड़ कर आई नजर 75 बरसों की जैसे कोई कहानी।। मनोविज्ञान पढ़, पढ़ लिए मन मैने, मुस्कान लबों पर बड़ी पुरानी।। मैं मन की डॉक्टर, घर के सारे बने डॉक्टर जिस्मानी।। *बहुत जेंटल है अमित की मां* अक्सर कहती थी *मेरे बच्चों की नानी* चंद लफ्जों में कैसे कह दूं मैं 75 बरसों की लंबी कहानी।। असमय ही बाबुल गए छोड़ कर, लाभ गगन का,हुई धरा की हानि। करती रही अपने कर्तव्य कर्म सदा मैं, खामोशी से सही परेशानी।।। समय ने जाने क्यों सिखा दिया था मुझको,  किसी हाल

क से कलाम क से कसाब

स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार

अस्तित्व मेरा

सोच

11 स्वर और 33 व्यंजन

मुबारक मुबारक

भरोसे

*भरोसे का हम करते हैं पालन और करते हैं मूल्यों का निर्माण* मूलमंत्र है यही निगम का, *समाधान हेतु आगमन,संतुष्टि सहित समाधान* *सुरक्षा,संरक्षा और विश्वास* है निगम हमारा इन्हीं से खास।। सुखद वर्तमान की गहरी नीव ये उज्जवल भविष्य की होती आस।। आस ना टूटे,विश्वाश ना छूटे हर समस्या का मिलता है समाधान *भरोसे का हम करते हैं पालन और करते हैं मूल्यों का निर्माण* सपनों को हकीकत में बदलना  हमें बखूबी आता है। हर पॉकेट में हो एक पॉलिसी, निगम यही तराना गाता है।। सरगम आश्वाशन की,सुर भरोसे के साथ निभाने का पहना परिधान।। मूल मंत्र है यही निगम का, समाधान हेतु आगमन, संतुष्टि सहित समाधान।। *परिकल्पना,प्रतिबद्धता और प्रयास* नवीनीकरण द्वारा परिवर्तनकारी दृष्टिकोण अपनाकर,किया निगम ने सदा विकास।। विकास  रुके ना कभी,ह्रास हो ना कभी,बनते रहे यूं हीं कीर्तिमान। भरोसे का हम करते हैं पालन और करते मूल्यों का निर्माण।   *भरोसा वही विश्वाश वही* दुनिया की इस भीड़ में हम कल हों ना हों,रहे चलती अपनों की खाता बही।। इसी सोच को लेकर आगे बढ़े हम अहम से वयम का सुनाते फरमान।। मूलमंत्र है यही निगम का, समाधान हेतु आगमन

सकल पदार्थ हैं जग माहि (( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

सकल पदारथ हैं जग मांहि,कर्महीन नर पावत नाहि।। स--ब कुछ है इस जग में,कर्मों के चश्मे से कर लो दीदार। क--ल कभी नही आता जीवन में, आज अभी से कर्म करना करो स्वीकार। ल--गता सबको अच्छा इस जग में करना आराम है। प--र क्या मिलता है कर्महीनता से,अकर्मण्यता एक झूठा विश्राम है। दा--ता देना हमको ऐसी शक्ति, र--म जाए कर्म नस नस मे हमारी,हों हमको हिम्मत के दीदार। थ-कें न कभी,रुके न कभी,हो दाता के शुक्रगुजार। हैं--बुलंद हौंसले,फिर क्या डरना किसी भी आंधी से, ज--नम नही होता ज़िन्दगी में बार बार। ग--रिमा बनी रहती है कर्मठ लोगों की, मा--नासिक बल कर देता है उद्धार। हि--माल्य सी ताकत होती है कर्मठ लोगों में, क--भी हार के नहीं होते हैं दीदार। र--ब भी देता है साथ सदा उन लोगों का, म--रुधर में शीतल जल की आ जाती है फुहार। ही--न भावना नही रहती कर्मठ लोगों में, न--हीं असफलता के उन्हें होते दीदार। न--र,नारी लगते हैं सुंदर श्रम की चादर ओढ़े, र--हमत खुदा की सदैव उनको मिलती है उनको उपहार। पा--लेता है मंज़िल कर्म का राही, व--श में हो जाता है उसके संसार। त--प,तप सोना बनता है ज्यूँ कुंदन, ना--द कर्म के से गुंजित होता है मधुर व

धूप धूप सी जिंदगी

धूप धूप सी जिंदगी, छांव छांव सी तूं कांटे कांटे से सफर मे, मखमली दूब सी तूं

कहीं होता है आगमन(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*कहीं होता है आगमन  और कहीं होता है प्रस्थान*  यही फ़लसफ़ा है जीवन का,  यूं ही चलता है यह विहंगम जहान।।  *कहीं होती है धोरा की धरती  कहीं होती है घणी हरियाली*  बदलते रहते हैं मिजाज ए मौसम, कभी होली और कभी दिवाली।।  *कहीं होता है दमन और शोषण*  कहीं रामराज का बजता है डंका।  कहीं बुझ जाते हैं चिराग असमय ही, कहीं जलती है सोने की लंका ।। *कहीं शौक गुर्राते हैं निस दिन* कहीं जरुरते सुस्त सी हैं हो जाती। सही 56 भोग महकते हैं बड़ी शान से,  सही सूखी रोटी भी मयस्सर नहीं हो पाती।। बड़ी गहन विषमता की खाई है, नहीं युगों युगों से पाटी जाती कोई कहता है ये खेल है किस्मत का,मेरी छोटी सी समझ को बात बड़ी ये समझ नहीं आती।।

मुबारक मुबारक

तारों की छांव में

beauty behaviour brain

सुसंस्कार

प्रेम,समर्पण और विश्वाश

समर्पण और विश्वाश

सुहानी है हर बात तेरी

नहीं बनना

** नहीं बनना** नहीं बनना मुझे राधा शाम की, जो रास तो संग मेरे रचाता हो। पर सिंदूर मांग में किसी और की, बड़े प्रेम से सजाता हो।।।।।।।।। नहीं बनना मुझे सिया राम की, जो सर्वज्ञ होकर भी अग्निपरीक्षा करवाता हो। गर्भावस्था में भी अपनी अर्धांगिनी को धोखे से वन में भिजवाता हो।।।।। नहीं बनना मुझे द्रौपदी पार्थ की, जो ब्याह तो संग मेरे रचाता हो। अपनी माता के कहने से निज भाइयों संग,इस नाते के हिस्से करवाता हो।।। नहीं बनना मुझे गौतम की कोई अहिल्या, जो मुझे श्रापग्रस्त करवाता हो। छल से मुझे तो छला इन्द्र ने, मुझे ही बरसों राम प्रतीक्षा करवाता हो।। नहीं बनना मुझे पांचाली धर्मराज की, जो जुए में मुझे ही दांव पर लगाता हो। भरी सभा में केश खींच लाने वाला दुशाशन, नारी अस्मिता को ही जैसे माटी में मिलाता हो।। नहीं बनना मुझे लक्ष्मण की उर्मिला, जो मुझे विरह अग्नि में जलाता हो। बिन मेरी इच्छा जाने वो भाई संग, वन गमन की कसमें खाता हो।। नहीं बनना मुझे यशोदा गौतम की, मां बेटे को सोया छोड़ जो भरी रात में सत्य की खोज में जाता हो। पल भर के लिए भी नहीं सोचा मां बेटे का,तोड़ा झट से,चाहे कितना ही गहरा नाता

**नहीं बनना**(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

* नहीं बनना* *नहीं बनना मुझे राधा शाम की* जो रास तो संग मेरे रचाता हो। पर सिंदूर मांग में,किसी और के, बड़े प्रेम से सजाता हो।।।।।।।।। *नहीं बनना मुझे सिया राम की* जो सर्वज्ञ होकर भी अग्निपरीक्षा करवाता हो। गर्भावस्था में भी अपनी अर्धांगिनी को , धोखे से वन भिजवाता हो।।।।। *नहीं बनना मुझे द्रौपदी पार्थ की* जो ब्याह तो संग मेरे रचाता हो।  पर  माता के कहने से  निज भाइयों संग, इस पावन नाते के हिस्से करवाता हो।।। *नहीं बनना मुझे गौतम की कोई अहिल्या* जो मुझे श्रापग्रस्त करवाता हो। छल से मुझे तो,छला इन्द्र ने, मुझे ही बरसों, राम प्रतीक्षा करवाता हो।। *नहीं बनना मुझे पांचाली धर्मराज की* जो जुए में, मुझे ही दांव पर लगाता हो। भरी सभा में केश खींच कर लाया दुशाशन, नारी अस्मिता को ही जैसे माटी में मिलाता हो।। *नहीं बनना मुझे उर्मिला लक्ष्मण की* जो मुझे विरह अग्नि में जलाता हो। बिन मेरी इच्छा जाने वो भाई संग, वन गमन की कसमें खाता हो।। **नहीं बनना मुझे किसी अकबर की जोधा  जो जबरन मुझसे ब्याह रचाता हो। *जिसकी लाठी भैंस उसी की* उक्ति सही सिद्ध करवाता हो।।। *नहीं बनना मुझे यशोदा गौतम की* मां ब

समझ लेती है मौन

तुम तर्क विज्ञान का

बड़े शीतल

हार जीत

हम साथ साथ हैं

बुआ और भतीजी

तिकड़ी