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यादें

ये यादें भी न कितनी अजीब होतीं हैं बस कहीं से भी चलीं आतीं हैं! इन्हें कितना भी रोको रुकती नहीं है ये  छोटी सी दरारों से!  अधखुली खिड़की से! टूटे हुए रोशन दान से! टपकती छत से! सीलन वाली दीवारों से! बस उन्हें तो आना ही है आकर बस जाना है बस! फिर न जाने के लिए कल ही टूटे हुए रौशन दान से एक याद बस गिरने को ही थी कि मैंने थाम लिया उसे! लगा जैसे किसी अपने को थामा है!  फिर वो याद मुझसे और मैं उससे घण्टों बातेँ करते रहे!! सुबह उस याद ने वादा किया वो फिर आयेगी  कभी न जाने के लिए! कभी न जाने के लिए! ये यादें भी न!!

मेहमान(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*अपने ही घर  बेटी बन जाती है मेहमान* सच में दौर बदल जाते हैं, *बदल जाते हैं  उसी आंगन के बागबान* जहां जिंदगी का परिचय  हुआ था अनुभूतियों से, जिस आंगन में मात पिता हर संज्ञा,सर्वनाम विशेषण से  करवाते हैं पहचान बदल जाते हैं तौर तरीके  उस आंगन के, *नई पीढ़ी की सोच के नए आयाम** छीन छीन कर खाने वाली,  सजे सजे से मेज पर देखती रहती है पकवान सबके आने पर ही अब खाती है वो,  औपचारिकता के जेहन में पक्के निशान।। *बैग उठाए अपने हाथ में  बिचल सी जाती है वो नादान* किस कोने में रखूं इसे, कहीं किसी को मेरे कारण न आए कोई व्यवधान।। फिर हौले से पूछती है वो लाडो, कहां रखूं मैं अपना बैग ये, बता दो ना भाई और भाभी जान।। मन तो लगता है उसी मां के कमरे में, जहां हाथ पकड़ वो बड़े प्रेम से, हौले से ले जाती थी। खोल कपाट फिर निज अलमारी के, वो सूट सिले हुए दिखाती थी।। नाडा भी होता था उन सलवारों में, मेरी मां मुझ से घंटों बतियाती थी।। मैं मेरी मां के साए तले, खुद मां हो कर भी बच्ची बन जाती थी। वो मां के आंचल की सौंधी सौंधी महक मेरी सांस सांस में बस जाती थी।। उस वात्सल्य सागर में मैं आकंठ डूब जाती थी सारी थक

भुला न जाए

फिर याद आ गई

लो भूली दास्तान