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प्रतिशोध। by sneh premchand

प्रतिशोध की बजाय ह्रदय परिवर्तन ज़्यादा बेहतर विकल्प है।पांचाली के प्रतिशोध का परिणाम महाभारत का विनाशकारी युद्ध था।जैसे हिंसा से अहिंसा बेहतर है ऐसे ही प्रतिशोध से क्षमा बेहतर है।प्रतिशोध किसी भी नकारात्मक क्रिया के प्रति नकारात्मक ही प्रतिक्रिया है।कभी कभी ये शांति,सुकून,संतोष न देकर मात्र पछतावा ही देता है।महाभारत युद्ध मे बेशक धर्म की अधर्म पर,सत्य की असत्य पर विजय हुई हो,पर दोनों ओर से जाने कितने ही निर्दोष मारे गए।कर्ण और अभिमन्यु जैसे महान योद्धा छल से मारे गए।यह सब अति विचारणीय है।।   स्नेहप्रेमचंद

क्या क्या नहीं छूटा

कवच कुंडल। by sneh prem chand

लालसाओं के इंद्र ने छल लिया विवेक के कर्ण को, और छीन करुणा के कवच कुंडल, कर दिया चित्त को लहुलुहान। मानव मानव न रह कर बन गया दानव, भोग विलास का रूह ने  पहन लिया परिधान।। सब छोड़ कर जाना है एक दिन, इस सत्य से न ही रहें अनजान।। अहम के कौरवों ने विनाश का जुआ   बेशक जीत लिया हो पांडवों से, पर सारथि बने ईश्वर की मदद से महाभारत युद्ध मे मिली विजय महान।। छल के मारीच ने बेशक भृमित कर दिया हो सत्य की सिया को, पर उसके सतीत्व को हर न पाया रावण  कद वान।। छल के बाली ने बेशक छीन लिया राजपाठ और  भ्रात भार्या को, पर अधर्म पर विजय हुई धर्म की,रघुनन्दन ने सुनाया मौत फरमान।। छल के चक्रव्यूह ने बेशक घेर लिया हो वीरता के अभिमन्यु को, वध अभिमन्यु का भी कौरवों को नही दे पाया पहचान।। छल से बेशक पांचाली को जीत लिया हो जुए में कौरवों ने, चीर हरण के समय आए माधव, बढ़ाया चीर, न घट पाया नारी सम्मान।। स्नेहप्रेमचंद

poem on corona कोरोना क्या करो क्या करो न by snehpremchand

बेहिसाब by snehpremchand

अंजुम,चाँद या फिर आफताब चाहे कोई भी देदे,गम तुम्हे खिताब हो ज़िन्दगी की सबसे खूबसूरत किताब यूँ ही तो नही ज़िन्दगी में  माँ को  कहा जाता है लाजवाब। करते थे,करते है,करते रहेंगे प्यार तुमसे बेहिसाब।।          स्नेहप्रेमचंद

वो बचपन कितना प्यारा था। by snehpremchand

वो बचपन कितना प्यारा था माँ ने बखूबी संवारा था।।  चिंता चित्त में न होती थी मासूमियत ममता के आंचल में सोती थी रूठे को मनाना आता था सहजता का दामन भाता था माया के दलदल में न गोता खाया था सब अपने न ,कोई पराया था झगड़े तब भी होते थे पर अपनापन न खोते थे रिश्तों की उधडन को सी लेती थी माँ, समन्वय और समझौते से हर रिश्ता  माँ ने बखूबी प्यार सेसंवारा था वो बचपन कितना प्यारा था।।

वो बचपन कितना प्यारा था। by snehpremchand

वो बचपन सच में कितना प्यारा था, जहाँ लड़ते ,झगड़ते,फिर मिल जाते वो सच में कितना अदभुत न्यारा था।। जब भी ज़िन्दगी में उलझन होती थी, तब माँ की सुखदायक गोदी होती थी, पिता का सर पर कितना ठंडा सा साया था,  विहंगम से जग में लगता न कोई  पराया था, औपचारिकता की बड़ी बड़ी सी,मज़बूत सी, चिन ली सबने भावहीन सी निष्ठुर दीवारें हैं।  कोशिश कर पार भी देखना चाहें अगर हम,  लगती बेगानी,बेरुखी निष्प्राण सी मीनारें है।। तब दी के बीच तेरा मेरा न कभी भी होता था,  अहम से वयम था,सब का सब कुछ होता था।  पूरा प्रेममय सा जहान हमारा सारे का सारा था, वो बचपन कितना प्यारा था।। माँ इंतज़ार करती रहती थी, वो सब से बड़ा सहारा था। बाबुल के अंगना में, चिड़िया का बसेरा बड़ा दुलारा था।। वो बचपन कितना प्यारा था, नही बोलता था जब कोई अपना, चित्त में हलचल हो जाती थी। खामोशी करने लग जाती रही कोलाहल, भीड़ में भी तन्हाई तरनुम बजाती थी।। किसी न किसी छोटे से बहाने से, मिलन की आवाज़ आ जाती थी।  बड़े अहम छोटे हो जाते थे, सहजता लंबी पींग बढ़ाती थी। सबने मिलजुल कर बचपन अपना निखारा था, वो बचपन सच में कितना अनमोल, प्यारा था।। अपनत्व के तरकश से सब,प्रेमत