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सोच कर्म परिणाम(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*सोच कर्म परिणाम तीनों की त्रिवेणी युगों युगों से युगों युगों तक 
संग संग बहती आई है*
*मैं भी जानू तू भी जाने,
 समय की धारा ने,
 बात यही समझाई है**

 हम जो सोचते हैं, वैसा ही करते हैं,
और जैसा करते हैं उसी का परिणाम हमें भुगतना पड़ता है।
हमारे किए कर्म ही एक दिन हमसे मुलाकात करने आ जाते हैं, उस समय हैरानी नहीं होनी चाहिए।
 सबसे महत्वपूर्ण है कि हमारी सोच कैसी हो??? इसमें एक नहीं, अनेक कारक है जो हमारी सोच को प्रभावित करते हैं हमारा परिवेश परवरिश,नाते, मित्र, हमारी प्राथमिकताएं,हम से जुड़े हुए लोग, हमारा कार्यस्थल,हमारे संवाद, हमारे संबंध,हमारे बचपन से लेकर आज तक के अनुभव, हमारे मात पिता से संबंध,हमारी विफलताएं और हमारी उपलब्धियां और सबसे महत्वपूर्ण हमारी शिक्षा और उससे भी महत्वपूर्ण हमारे *संस्कार*

क्या हमारे संस्कार इतने ताकतवर हैं जो हमारी सोच को प्रभावित कर पाएं और हम उसी के अनुसार अपने कर्म करें।कहीं आधुनिकता की अंधी भागदौड़ में हम वो देख ही नहीं रहे जो हमे देखना चाहिए
*सुख सुविधाएं* शांति और सच्ची खुशी की गारंटी नहीं ले सकती।
अधिक की कोई सीमा नहीं।महत्व इस बात का है कि हम क्या खो कर क्या पा रहे हैं।क्षणिक से इस जीवन में क्षणिक खुशियों की खातिर हम अपना क्षण क्षण जोखिम में डाल देते हैं।

 अच्छा साहित्य, अच्छे लोग, अच्छा संगीत, कला यह सब चीजें हमारी सोच को काफी हद तक प्रभावित करती हैं।।

मात पिता हर 🌞 सन और शैडो में हमारे साथ खड़े होते हैं। वे भरोसे का अथाह सागर हैं।उनके विश्वास को तोड़ना तो ईश्वर संग विश्वास घात करने समान है। वे राह दिखा सकते हैं,पर चलना तो खुद ही होगा।अर्जुन ने अगर माधव की ना मानी होती तो निश्चित ही हार होती।।

 हमारे संस्कार हमारे मूल में कितने गहरे तक हैं यह बहुत जरूरी बात है।।क्या भौतिक संसाधन हमें इतना लालायित करते हैं कि हम सहज भाव से संस्कारों की आहुति दे देते हैं।अति विचारणीय और यक्ष प्रश्न है ये।।

*कुछ फर्क नहीं पड़ता* कहते कहते इतना फर्क पड़ जाता है कि जिंदगी की राहें ही बदल जाती हैं।।

चिल चिल करते हुए हम कब हिल जाते हैं पता ही नहीं चलता।

मंजिल तक पहुंचना हमारा सफर ही तय करता है।।

नजर से नजरिया महत्वपूर्ण होता है
सदा याद रहे।।

No means No ही हो,थोड़ा बहुत,लिमिट में, जैसे शब्द किसी भी बात की गंभीरता का हरण कर लेते हैं।।

जैसे कविता लिखने के लिए कविता बनना पड़ता है वैसे ही संस्कार देने के लिए खुद संस्कारी बनना पड़ता है।संस्कारों की कोई वर्णमाला नहीं होती।संस्कार उच्चारण नहीं आचरण हैं,संयम और मर्यादा हैं।भोग विलास बेशक चमकते दिखाई दें, पर सच्चे उजियारे तो सदा संतोष संयम और  सौहार्द से आए हैं।सार्वभौमिक सर्व विदित सत्य है ये।।

हर चीज को नॉर्मल नॉर्मल कहते हम खुद ही कब एब्नॉर्मल हो जाते हैं,अवसाद विषाद की गहरी खाई में छलांग लगा देते हैं, पता ही नहीं चलता।

जब तक रास्ते समझ में आते हैं जिंदगी का सफर पूरा ही होने को आ जाता है।।फिर काश का मलाल सदा के लिए मित्र बन जाता है।।कोई देखे या ना देखे
वो ज़रूर देखता है।।

*करुणा प्रेम सौहार्द भाईचारा पारिवारिक मूल्य* को क्या हम इतनी तवज्जो दे पाते हैं यह महत्वपूर्ण नहीं, अति महत्वपूर्ण है। *उच्चारण नहीं आचरण* को अपनाना सबसे जरूरी है। मेज पर leg पीस खाते हुए अगर हम करुणा का पाठ पढ़ा रहे होते हैं, तो विरोधाभास का इससे बेहतर उदाहरण क्या होगा?? हम बच्चों को शिक्षा देते हैं शराब नहीं पीना मास नहीं खाना लेकिन बच्चों को शिक्षा देते समय हमारे हाथ में जब शराब का गिलास होगा तो यह उन बच्चों पर किस हद तक प्रभाव कारी होगा इसका अनुमान काफी हद तक लगाया जा सकता है। 

*बोए पेड़ बबूल के तो आम कहां से खाएं*

हमारे पारिवारिक परिवेश का असर बच्चों की सोच पर बहुत गहरे तक समाया हुआ होता है। यह हमारा नैतिक दायित्व बन जाता है कि हम अपने कर्मों का लेखा जोखा सही से रख सके. आत्ममंथन कर आत्मबोध हो सके इसके बाद आत्म सुधार की राह पर निर्बाध गति से जीवन के सफर को पूरा करें। विश्व भ्रमण से तो ज़रूरी है अंतर्मन के गलियारों में विचरण करें,जिंदगी का बहुत बड़ा हिस्सा इस बात में गुजर जाता है कि लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं लेकिन हम अपने बारे में क्या सोचते हैं इतनी महत्वपूर्ण बात को उपेक्षित कर देते हैं।जाने कितने ही लोगों से मिलते रहते हैं और खुद से खुद की मुलाकात नहीं हो पाती।

हम यह भी भूल जाते हैं परनिंदा में जब हम रस ले रहे होते हैं तो कहीं न कहीं अपने जीवन का रस खो रहे होते हैं।।

जितना समय इस बात में लगाया उसने बोला,इसने बोला,क्यों बोला,कैसे बोला,कब बोला बेहतर होता आत्म सुधार में लगाया होता तो जिंदगी के गणित के समीकरण समय पर अच्छे से हल हो गए होते।।

*बोल कर सोचने से बेहतर है सोच कर बोलना*

जिंदगी है,समस्या तो आएंगी
पर शिक्षा जब संस्कार की अर्धांगिनी होगी तो समाधान निकल ही आएगा।।
 
 कई बार मुख्य गौण हो जाता है और गौण मुख्य हो जाता है।कथनी और करनी में अंतर हो जाता है तो हमारा व्यक्तित्व प्रभावी नहीं हो सकता। किसी के दिमाग में अपना प्रभाव अंकित करने के लिए बहुत सारी बातों को हमें खुद अपनाना पड़ता है।
 बच्चों के संदर्भ में तो यह सौ फ़ीसदी बात सही है। एक उम्र आने पर तो उनसे मित्रवत व्यवहार करना पड़ता है ताकि वे अपने दिल की बात औरों की बजाए मात पिता को ही बता सके। अच्छे संस्कार उतने ही जरूरी है जितना कि दिल में धड़कन होना और सुर में सरगम होना। यदा-कदा हम यह भूल जाते हैं और आधुनिकता का नाम देकर ऐसी कर्म करने लग जाते हैं जिनका प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में प्रभाव आगामी पीढ़ी पर निश्चित रूप से पड़ता है मात पिता बनने के बाद हमारी नैतिक, सामाजिक ,भावनात्मक जिम्मेदारी निश्चित रूप से बढ़ जाती है। समझदार व्यक्ति वह है जो दूसरों के अनुभव से सीख जाता है। मूर्ख व्यक्ति ही ठोकर लगने के बाद जिंदगी के पाठ सीख पाता है। सही समय पर सही आचरण करना अति आवश्यक है। शराब शबाब और कबाब आधुनिकता के पैमाने नहीं हैं। जब यह बात समझ में आ जाती है तो जिंदगी आसान हो जाती है।

 *सोच कर्म और परिणाम* की त्रिवेणी आपस में किस तरीके से एक दूसरे से प्रभावित होती है अच्छे से समझ आ जाती है। 

इस संसार में प्रलोभन तो अनेक होंगे डिस्ट्रक्शन भी बहुत होंगे, लेकिन हमारे संस्कार ही होते हैं जो हमें इस तरफ जाने से रोकते हैं। मात-पिता का पहरा पल पल बड़े होते बच्चों के साथ नहीं हो सकता। इसलिए शिक्षा के भाल पर संस्कार का टीका लगना उतना ही जरूरी है जितना कि तन में श्वास होना।

 शुरू शुरू में यह बात जरूरी नहीं समझ आ जाए पर जितनी जल्दी समझ आ जाती है जिंदगी के सफर के मार्ग अवरोधक आसानी से पार हो जाते हैं। जिंदगी एक सफर ही तो है लेकिन यह सफर किस प्रकार से पूरा होता है यह महत्वपूर्ण है गरिमामय जीवन मनुष्य को शांति और सुकून देता है। समस्याओं से पूर्ण जीवन चित को चिता बना देता है।अतः अति विचारणीय है कि हमारे संस्कार हमारा सही मार्ग निर्देशन करें। हम अपने गुरुजनों मात-पिता और अच्छे मित्रों की बातों का अनुसरण करें।।जीवनपथ फिर अग्निपथ न होकर सहज पथ होगा।।

*बाप और बेटी जब एक ही मधुशाला में हाला के प्याले संग संग छलकाते हैं*
संस्कारों की हो जाती है तेरहवीं,
उसे खुद ही कफन ओढाते हैं।।

घर के बड़े कैसे भूल जाते हैं बच्चों के समक्ष किया गया उनका आचरण ही तो बच्चों के संस्कार बनते हैं।पश्चिम की नकल करते करते पूरब ने अपनी शख्शियत क्यों जमींदोज कर ली?? 

*नर संग जब नारी भी मधुशाला जाती है*
सुधार की हर संभावित संभावना को,खुद ही माटी में मिलाती है।।

*व्यसनों से सदा दूर रहो
व्यसन होते हैं अति खराब*
नहीं आधुनिकता के ये पैमाने*
*शराब,शबाब और कबाब*
मानो चाहे या ना मानो,
अपने किए कर्मों का,
 इसी जन्म में
देना पड़ता है पूरा हिसाब
किस पन्ने पर हम क्या लिखते हैं
*बनती है इसी से जिंदगी की किताब*

मैने पूछा शिक्षा से," सबसे सुंदर कौन सा रूप है तुम्हारा"
हौले से मुस्कुरा कर बोली," शिक्षा
मिलता है जब मुझे संस्कार का
सहारा"

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