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यही चाहते हैं रसखान

क्या चाहते हैं रसखान? लाठी,कम्बल गर मिल जाये मोहन की, तीनों लोकों का त्याग देंगे राज। मिल जाएं जो नंद बाबा की गइयाँ चरावन को, आठ सिद्धियों और नौ निधियों का क्या काज। मिल जाएं जो ब्रज के वन,बगीचे और तड़ाग करोड़ों सोने के महल न्योछावर, करील के कुंजों  देखने के लिए मन रसखान का रहा भाग।।

आई तीज बो गई बीज

आई तीज बो गई बीज, आई होली भर ले गई झोली आती है यादें अतीत की बहुत आती है याद वो मां की मीठी बोली आज भी जेहन में छाई हुई हैं माँ की वे गहरी गहरी बातें, वो मां का कर्मों में आनंद लेना हर त्योहार में छिपी सौगातें। नीम के पेड़ पे झूला पड़ा, तेज़ पींगो से मन बहला। खुशहाली गूँजें आँगन में, पड़ोसिनें भी आ जाएँ आनन-फानन में। माँ के हाथों की सुहाली, पापड़ की खुशबू, सजता था घर जैसे कोई पर्व हो रू-ब-रू। थाली में स्वाद, मन में उमंग, हर दिन जैसे कोई नया रंग। न धन था बहुत, न वैभव भारी, फिर भी ना थी कोई कमी हमारी। स्नेह था, अपनापन था, हर दिल में तीज सा बचपन था। अब जब आई फिर से तीज की बारी, याद आई वो नीम की डारी। माँ की बातें, त्योहारों की रीत, मन में बस गईं बनकर प्रीत। सहेज ली हैं वो सब यादें, आज की भागती दुनिया में जैसे कुछ प्यादे। हर तीज पे फिर वो पल बुलाएँ, बचपन की गलियों में झूला झुलाएँ – समर्पित माँ को, तीज की उन मिठास भरी स्मृतियों को

चलो मन

चलो मन वृन्दावन की ओर प्रेम का रस जहाँ छलके है माँ की ममता जहाँ महके है। चिड़ियों से आंगन चहके है। सदभाव जहाँ डाले है डेरा न कुछ तेरा,न कुछ मेरा आती समझ जिसको जहाँ ये ऐसे घाट की ओर। जहाँ जात पात का भेद नही है मज़हब की जहाँ हो न लड़ाई ऐसी वसुंधरा क्यों न बनाई हो जाये मनवा विभोर।

मैं सही तूं गलत

समझ लेना प्रेम करना आ गया

कड़वा है मगर सत्य है

प्रलय