Skip to main content

मेहमान(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*अपने ही घर 
बेटी बन जाती है मेहमान*
सच में दौर बदल जाते हैं,
*बदल जाते हैं 
उसी आंगन के बागबान*

जहां जिंदगी का परिचय
 हुआ था अनुभूतियों से,
जिस आंगन में मात पिता हर संज्ञा,सर्वनाम विशेषण से 
करवाते हैं पहचान
बदल जाते हैं तौर तरीके 
उस आंगन के,
*नई पीढ़ी की सोच के नए आयाम**

छीन छीन कर खाने वाली,
 सजे सजे से मेज पर देखती रहती है पकवान
सबके आने पर ही अब खाती है वो,
 औपचारिकता के जेहन में पक्के निशान।।

*बैग उठाए अपने हाथ में 
बिचल सी जाती है वो नादान*
किस कोने में रखूं इसे,
कहीं किसी को मेरे कारण न आए कोई व्यवधान।।
फिर हौले से पूछती है वो लाडो,
कहां रखूं मैं अपना बैग ये,
बता दो ना भाई और भाभी जान।।

मन तो लगता है उसी मां के कमरे में,
जहां हाथ पकड़ वो बड़े प्रेम से,
हौले से ले जाती थी।
खोल कपाट फिर निज अलमारी के,
वो सूट सिले हुए दिखाती थी।।
नाडा भी होता था उन सलवारों में,
मेरी मां मुझ से घंटों बतियाती थी।।
मैं मेरी मां के साए तले,
खुद मां हो कर भी बच्ची बन जाती थी।
वो मां के आंचल की सौंधी सौंधी महक मेरी सांस सांस में बस जाती थी।।
उस वात्सल्य सागर में मैं आकंठ डूब जाती थी
सारी थकान उतर जाती थी सासरे की,
 सच में तरोताजा सा खुद को पाती थी।।
दहलीज पार कराती थी जब फिर मां मुझे,
गाड़ी में मेरी आंखें डब डब भर जाती थी। 
एक गोला सा अटक जाता था मेरे कंठ में,
धुंधलाए मंजर से मां की धुंधली सी छवि नजर आती थी।।
वो खड़ी देखती रहती थी,
जब तक गाड़ी मोड़ से नहीं मुड़ जाती थी।।
*एक वो दौर था एक ये दौर है*
सच में समय ही होता है बलवान
*दूसरे कमरे में चली जाओ तुम*
*छोटा सा शब्द पर नश्तर समान*
हल्का सा बैग हो गया अति भारी,
*थके थके से कदम,मन रेगिस्तान*

सच में मां से अच्छा कुछ नहीं इस जग में,
मां कुदरत का अनमोल वरदान।।
हर मोड़ पर याद आती है ऐसे,
जैसे धानी मेंहदी के लाल लाल निशान।।

*बुआ की जगह ले लेती है भतीजी*
शायद यही बदलते दौर की पहचान
वो मां का कमरा वो मां की अलमारी
*खोजती निगाहें,सुलगते अरमान*
नहीं आते समझ ये ताने बाने नातों के
*नम नयन,लबों पर मुस्कान*
*भतीजी आगे,बुआ पीछे नेपथ्य के*
लम्हे की खता बन जाती है दास्तान
         स्नेह प्रेमचंद






Comments

Popular posts from this blog

वही मित्र है((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

कह सकें हम जिनसे बातें दिल की, वही मित्र है। जो हमारे गुण और अवगुण दोनों से ही परिचित होते हैं, वही मित्र हैं। जहां औपचारिकता की कोई जरूरत नहीं होती,वहां मित्र हैं।। जाति, धर्म, रंगभेद, प्रांत, शहर,देश,आयु,हर सरहद से जो पार खड़े हैं वही मित्र हैं।। *कुछ कर दरगुजर कुछ कर दरकिनार* यही होता है सच्ची मित्रता का आधार।। मान है मित्रता,और है मनुहार। स्नेह है मित्रता,और है सच्चा दुलार। नाता नहीं बेशक ये खून का, पर है मित्रता अपनेपन का सार।। छोटी छोटी बातों का मित्र कभी बुरा नहीं मानते। क्योंकि कैसा है मित्र उनका, ये बखूबी हैं जानते।। मित्रता जरूरी नहीं एक जैसे व्यक्तित्व के लोगों में ही हो, कान्हा और सुदामा की मित्रता इसका सटीक उदाहरण है। राम और सुग्रीव की मित्रता भी विचारणीय है।। हर भाव जिससे हम साझा कर सकें और मन यह ना सोचें कि यह बताने से मित्र क्या सोचेगा?? वही मित्र है।। बाज़ औकात, मित्र हमारे भविष्य के बारे में भी हम से बेहतर जान लेते हैं। सबसे पहली मित्र,सबसे प्यारी मित्र मां होती है,किसी भी सच्चे और गहरे नाते की पहली शर्त मित्र होना है।। मित्र मजाक ज़रूर करते हैं,परंतु कटाक

अकाल मृत्यु हरनम सर्व व्याधि विनाश नम Thought on धनतेरस by Sneh premchand

"अकाल मृत्यु हरणम सर्व व्याधि विनाशनम" अकाल मृत्यु न हो, सब रोग मिटें, इसी भाव से ओतप्रोत है धनतेरस का पावन त्यौहार। आज धनतेरस है,धन्वंतरि त्रयोदशी, धन्वंतरि जयंती, करे आरोग्य मानवता का श्रृंगार।। आज ही के दिन सागर मंथन से प्रकट हुए थे धन्वंतरि भगवान। आयुर्वेद के जनक हैं जो,कम हैं, करें, जितने भी गुणगान।। प्राचीन और पौराणिक डॉक्टर्स दिवस है आज, धनतेरस के महत्व को नहीं सकता कोई भी नकार। "अकाल मृत्यु हरनम, सर्व व्याधि विनाशनम" इसी भाव से ओत प्रोत है धनतेरस का पावन त्यौहार।। करे दीपदान जो आज के दिन,नहीं होती अकाल मृत्यु,होती दूर हर व्याधि रोग और हर बीमारी के आसार।। आज धनतेरस है,धन्वंतरि त्रयोदशी,धन्वंतरि जयंती,करे आरोग्य मानवता का श्रृंगार।।।             स्नेह प्रेमचंद

सकल पदार्थ हैं जग माहि, करमहीन नर पावत माहि।।,(thought by Sneh premchand)

सकल पदारथ हैं जग मांहि,कर्महीन नर पावत नाहि।। स--ब कुछ है इस जग में,कर्मों के चश्मे से कर लो दीदार। क--ल कभी नही आता जीवन में, आज अभी से कर्म करना करो स्वीकार। ल--गता सबको अच्छा इस जग में करना आराम है। प--र क्या मिलता है कर्महीनता से,अकर्मण्यता एक झूठा विश्राम है। दा--ता देना हमको ऐसी शक्ति, र--म जाए कर्म नस नस मे हमारी,हों हमको हिम्मत के दीदार। थ-कें न कभी,रुके न कभी,हो दाता के शुक्रगुजार। हैं--बुलंद हौंसले,फिर क्या डरना किसी भी आंधी से, ज--नम नही होता ज़िन्दगी में बार बार। ग--रिमा बनी रहती है कर्मठ लोगों की, मा--नासिक बल कर देता है उद्धार। हि--माल्य सी ताकत होती है कर्मठ लोगों में, क--भी हार के नहीं होते हैं दीदार। र--ब भी देता है साथ सदा उन लोगों का, म--रुधर में शीतल जल की आ जाती है फुहार। ही--न भावना नही रहती कर्मठ लोगों में, न--हीं असफलता के उन्हें होते दीदार। न--र,नारी लगते हैं सुंदर श्रम की चादर ओढ़े, र--हमत खुदा की सदैव उनको मिलती है उनको उपहार। पा--लेता है मंज़िल कर्म का राही, व--श में हो जाता है उसके संसार। त--प,तप सोना बनता है ज्यूँ कुंदन, ना--द कर्म के से गुंजित होता है मधुर व